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पहले हाट-बाजार से पता चल जाता था प्रत्याशी की स्थिति

संवाद सूत्र तोरपा भव्य मंच रोशनी की चमक-दमक कार्यक्रम स्थल पर लगी बड़ी बड़ी एलईडी स्क्रीनें बड़े नेताओं के साथ सेल्फी के लिए भाग रहे कार्यकर्ता कुछ इसी तरह का चुनावी माहौल आजकल देखने को मिल रहा है। लेकिन एक ऐसा भी दौर था जब प्रचार करने के लिए संसाधन के नाम पर बैलगाड़ी व साइकिल हुआ करती थी। एक गांव से दूसरे गांव जाने में घंटो लग जाता था। तब और अब के चुनाव में काफी फर्क आ गया है। तब संसाधान कम थे अब ज्यादा है। तब राष्ट्रीय स्तर से लेकर क्षेत्रीय नेताओं की सभाओं के लिए भी प्राथमिकता हाट बाजार होती थी। अब सभाओं के लिए बड़े-बड़े मैदान हो गए हैं।

By JagranEdited By: Published: Sat, 27 Apr 2019 08:40 PM (IST)Updated: Sun, 28 Apr 2019 06:30 AM (IST)
पहले हाट-बाजार से पता चल जाता था प्रत्याशी की स्थिति
पहले हाट-बाजार से पता चल जाता था प्रत्याशी की स्थिति

तोरपा : भव्य मंच, रोशनी की चमक-दमक, कार्यक्रम स्थल पर लगी बड़ी-बड़ी एलईडी स्क्रीनें, बड़े नेताओं के साथ सेल्फी के लिए भाग रहे कार्यकर्ता, कुछ इसी तरह का चुनावी माहौल आजकल देखने को मिल रहा है। पर, एक ऐसा भी दौर था जब प्रचार करने के लिए संसाधन के नाम पर बैलगाड़ी व साइकिल हुआ करती थी। एक गांव से दूसरे गांव जाने में घंटों लग जाता था। तब और अब के चुनाव में काफी फर्क आ गया है। तब संसाधान कम थे, अब ज्यादा है। तब राष्ट्रीय स्तर से लेकर क्षेत्रीय नेताओं की सभाओं के लिए भी प्राथमिकता हाट-बाजार होती थी। अब सभाओं के लिए बड़े-बड़े मैदान हो गए हैं। पर, अभी भी मैदानों में जुटने वाली भारी भीड़ देख यह तय करना मुश्किल होता है कि कौन प्रत्याशी जीत रहा है। वहीं, पहले हाट-बाजारों में ही की गई जनसभाएं तय कर देती थीं कौन जीतेगा। अब भीड़ जुटाने के लिए भी रुपये खर्च करने पड़ते हैं। खूंटी जिले के सबसे बड़े बाजार तपकरा तथा रनिया का सोदे साप्ताहिक हाट इन दिनों चुनावी शोर से अछूता महसूस कर रहा है।

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मतदान की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। खूंटी लोकसभा के मतदाता 6 मई को अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इसके बावजूद बहुत से गांव ऐसे हैं, जहां किसी भी राजनीतिक दल का प्रत्याशी तो दूर अब तक कार्यकर्ता भी प्रचार के लिए नही पहुंचे हैं। वहीं, नुक्कड़ नाटक, स्कूली बच्चों द्वारा मतदाता जागरुकता तथा हाट-बाजारों के माध्यम से चुनावी हवा गांवों तक पहुंच रही है। निर्वाचन आयोग की सख्ती से चुनाव में पोस्टर-बैनर का बाजार ठंडा है। पहले प्रत्याशी पोस्टर-बैनर, पंपलेट, हैंडबिल आदि बड़े पैमाने पर छपवाते थे। चुनाव के दिनों में प्रिटिग प्रेस वाले को जरा सी भी फुर्सत नही होती थी, लेकिन अब ऐसी बात नहीं रही। कुछ पुराने मतदाताओं ने अपनी बातों को दैनिक जागरण से साझा किया।

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पहले के चुनाव में तथा अब के चुनाव प्रचार में काफी अंतर हो गया है। पहले प्रत्याशी बड़े-बड़े मैदानों में नही जाते थे। हाट-बाजार में घंटों व्यापारियों से मुलाकात कर वोट मांगते थे। जनसंघ से लेकर कांग्रेस व क्षेत्रिय दलों का चुनाव के वक्त दलों का अलग-अलग रंगों का डब्बा हुआ करता था। मतदान के लिए जा रहे लोगों को अपने रंग के डब्बों को बताते थे।

- विजय पाढ़ी, रिटायर्ड आर्मी।

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पहले के चुनाव में हर दिन बड़े बड़े लाउडस्पीकर के माध्यम से हाट बाजारों में अपने अपने दलों का प्रचार करता था। पहले पंडाल नही लगते थे, इतने साधन नही थे। ऐसे में इलाके में कोई ऐसे पेड़ का चुनाव किया जाता था, जिसके नीचे बैठ कर सभा का आयोजन किया जाता था।

क्रिस्टोपाल गुड़िया, रिटायर्ड शिक्षक।


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