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कंक्रीट के जंगल में खो गया गौरैया का घर

वीरेंद्र ओझा, जमशेदपुर : अब नन्हीं सी गौरैया चिड़िया कहीं फुदकती हुई दिख जाती है, तो अ

By JagranEdited By: Published: Tue, 20 Mar 2018 03:00 AM (IST)Updated: Tue, 20 Mar 2018 03:00 AM (IST)
कंक्रीट के जंगल में खो गया गौरैया का घर
कंक्रीट के जंगल में खो गया गौरैया का घर

वीरेंद्र ओझा, जमशेदपुर : अब नन्हीं सी गौरैया चिड़िया कहीं फुदकती हुई दिख जाती है, तो आश्चर्य होता है। लोग चर्चा करने लगते हैं कि फलां जगह गौरैया दिख रही है। इसकी वजह है कि गौरैया अब शहर ही नहीं, गांव में भी कम दिख रही है।

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पर्यावरणविद् डॉ. केके शर्मा बताते हैं कि कंक्रीट के जंगल में गौरैया का घर छीन लिया है। पहले फूस या खपरैल के घर होते थे, जिसमें गौरैया को सुरक्षा का अहसास होता था। खाने-पीने की चीज भी आसानी से मिल जाती थी। जैसे-जैसे समाज का रहन-सहन बदला, पक्के मकान बनने लगे। घरों में बिजली आ गई, जो इसके लिए सबसे घातक सिद्ध हुआ। घरों के वेंटीलेटर में घोसला बनाने वाली गौरैया बिजली के पंखों से टकराकर मरने लगी। अब जो मकान-फ्लैट बन रहे हैं, उसमें वेंटीलेटर भी नहीं होता। आखिर गौरैया जाए कहां। यही गौरैया के आश्रय होते थे। झाड़ियां भी बहुत कम हो गई हैं, जहां ये अपना घोसला या घर बनाते थे। बड़े पेड़ों पर गौरैया बहुत कम आश्रय लेती है, क्योंकि यहां बड़े पक्षियों का कब्जा होता है। आज गौरैया वहीं है, जहां जंगल-झाड़ी है। हालांकि उसे वहां भी रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। चूंकि गौरैया मानव जाति के आदिकाल से विद्यमान है, इसलिए यह वहीं रहना पसंद करती है जहां मनुष्य रहता है। गौरैया साल में दो बार ही प्रजनन करती है गर्मी और जाड़े के मध्यकाल में, यदि इस समय इसे संरक्षण नहीं मिला तो इनकी वंशवृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यदि समाज सचमुच गौरैया के लिए चिंतित है तो रिहायशी इलाकों में फूस या खपरैल के छोटे-छोटे मकान या झोपड़ी बनाना चाहिए, जहां गौरैया शांतिपूर्वक रह सके।

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मोबाइल टावर कारण नहीं

कुछ लोग मोबाइल टावर को गौरैया समेत अन्य पक्षियों का दुश्मन बताते हैं, लेकिन डॉ. शर्मा ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि यदि टावर से इन्हें खतरा होता तो सिर्फ शहर में इनकी आबादी कम होती, गांव में नहीं। दरअसल प्राकृतिक रहन-सहन में बदलाव गौरैया के कम होने का बड़ा कारण है।

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झारखंड में किसी को चिंता नहीं

बिहार सरकार ने तीन वर्ष पहले गौरैया (हाउस स्पैरो) को राजकीय पक्षी घोषित किया था। हालांकि वहां भी इसके संरक्षण-संव‌र्द्धन के लिए अभी तक धरातल पर कार्य नहीं हो रहे हैं, लेकिन झारखंड में इसके लिए कोई चिंतित ही नहीं। डॉ. केके शर्मा कहते हैं कि कुछ राज्यों में वन व पर्यावरण विभाग पक्षियों पर शोध-सर्वे करता है, लेकिन यहां कुछ भी नहीं हो रहा है। राज्य के विश्वविद्यालयों में भी शोध के लिए ना तो प्रयोगशाला है, ना इसके लिए कोई दिशा-निर्देश या राशि का प्रावधान है। उनके जैसे कुछ लोग पक्षियों पर शोध या सर्वे कर रहे हैं, तो व्यक्तिगत स्तर पर। वन प्रदेश होने के नाते सरकार को इसकी चिंता करनी चाहिए।


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