इस औद्योगिक शहर की सुंदरता में चार चांद लगा रहे कबाड़, देखते ही ठहर जाती आंखें
कबाड़ इस औद्योगिक शहर की सुंदरता में चार-चांद लगा रहे हैं। यह किसका आइडिया था? कैसे इसकी बुनियाद पड़ी? कौन है वह कलाकार जिसने कबाड़ को इतना प्रिय बना दिया? जानिए
जमशेदपुर,वीरेंद्र ओझा। बिहार-झारखंड में जमशेदपुर इकलौता ऐसा शहर है जहां चौक चौराहों की शान बढ़ा रहे हैं- कबाड़। इन्हें देखकर आंखें ठहर जाती हैं। इन्हें गढ़ने वाले कलाकार को दिल सलाम करता है। ये कबाड़ इस औद्योगिक शहर की सुंदरता में चार-चांद लगा रहे हैं। यह किसका आइडिया था? कैसे शहर में इसकी बुनियाद पड़ी? कौन है वह कलाकार जिसने कबाड़ को इतना प्रिय बना दिया? आइए जानते हैं यह कहानी।
शहर में कबाड़ से खूबसूरत कलाकृति या ढांचा बनाने वाले शिल्पी हैं शुभेंदु विश्वास। वह बताते हैं कि इसकी प्रेरणा उन्हें वर्ष 2008 में तब मिली, जब देवघर में पवन राय द्वारा आयोजित आर्ट वर्कशॉप में भाग लेने गए थे। वहां उन्हें कबाड़ से कलाकृति बनाने को कहा गया। उन्होंने वहीं के एक गैराज से बाइक की जंग लगी साइलेंसर और कुछ रॉड, पतली पाइप आदि लाया और चिड़िया की आकृति बनाई। अंतिम दिन प्रदर्शनी लगी, जिसे देवघर के तत्कालीन उपायुक्त आशीष पुरवार ने भी देखा और काफी तारीफ की। उन्होंने इसी तरह कई कलाकृति बनाने का प्रस्ताव दिया। बहरहाल, बात आई-गई हो गई। मैं दोबारा देवघर नहीं गया, लेकिन इस प्रयोग को जमशेदपुर में ही आजमाना चाहता था। मैं 2009 में जुस्को गया, जहां कैप्टन धनंजय मिश्र (सीनियर जीएम) से मिला।
और मिल गया आर्डर
पहले दिन उनसे संक्षिप्त बातचीत हुई और बाद में आने के लिए कहा। दूसरी बार जब मैं उनके चैंबर में गया, तो वहां उनके साथ 10-11 लोग बैठे थे। कैप्टन मिश्र ने मुझे कंप्यूटर पर कुछ फोटो दिखाए और कहा कि क्या आप स्क्रैप से ऐसी कलाकृति बना सकते हो। वे सभी एब्सट्रैक्ट आर्ट पर आधारित थे। यह कला भी अपने आप में अनूठी है, लेकिन मैंने कहा कि मैं किसी की नकल नहीं करता, जो कुछ बनाऊंगा अपनी सोच और अपने तरीके से बनाऊंगा। कुछ दिनों बाद मैं कागज पर करीब 50 ड्राइंग बनाकर ले गया, उन्हें दिखाया तो काफी प्रभावित हुए। काम पर लग जाने को कहा। मैंने पहली कलाकृति जुस्को के ही गैराज (फ्लीट मैनेजमेंट सेंटर) से लिए और एक चिड़िया बनाई। मैं इसे जुस्को की नर्सरी में बना रहा था। एक दिन उसे देखने तत्कालीन प्रबंध निदेशक आशीष माथुर भी कैप्टन मिश्र के साथ आए, उन्होंने देखते ही ऐसी 100 कलाकृति बनाने का आर्डर दे दिया। बस फिर क्या था, मैं बनाता गया और जुस्को उसे चौक-चौराहों (गोलचक्कर) पर लगाती गयी।
कीनन के पास लगा प्लेन फिल्म शूटिंग में हुआ था इस्तेमाल
कीनन स्टेडियम के पास यूं तो तार की जाली और कबाड़ से कई कलाकृति लगी है, लेकिन सड़क किनारे एक पार्क में लगा हवाई जहाज (प्लेन) सबको आकर्षित करता है। यह जहाज पुरुलिया से यहां लाया गया है। दरअसल इसका इस्तेमाल वहां एक बांग्ला फिल्म की शूटिंग में किया गया था। फिल्म में उसे टूटे हुए जहाज के रूप में दिखाना था, लिहाजा इस जहाज का ढांचा वैसा ही था जैसा टकराने के बाद किसी जहाज का होता है। शूटिंग के बाद फिल्म यूनिट के लोग उसे वहीं छोड़कर चले गए थे। जुस्को के अधिकारी उसे यहां ले आए और उसमें थोड़ा और काम करते हुए आकर्षक बनाया।
बाग-ए-जमशेद के पास बाउल
बिष्टुपुर स्थित बाग-ए-जमशेद स्कूल के पास कबाड़ से बाउल गायक की कलाकृति है। बाउल संगीत प. बंगाल में काफी लोकप्रिय है। इसके गीत और संगीत सुनने वाले को रोमांचित कर देते हैं। शुभेंदु ने कहा कि दूसरे राज्यों के लोग इसके बारे में नहीं जानते, इसलिए इसे बनाया, ताकि लोग बाउल के बारे में जानने को उत्सुक हों।
टाटा स्टील के अंदर स्क्ल्पचर पार्क
स्क्रैप आर्ट का नमूना सिर्फ शहर में ही नहीं है, टाटा स्टील के अंदर भी है। कंपनी परिसर स्थित बड़े तालाब के पास स्क्ल्पचर पार्क बनाया गया है, जहां लकड़ी और लोहे के टुकड़ों से करीब 20 कलाकृति रखी गई है। इनमें लोहे से ज्यादा आकर्षक लकड़ी के स्क्ल्पचर हैं। ये कटे या गिरे हुए पेड़ के तने, जड़ और टहनियों से बनाए गए हैं।
बारीडीह गोलचक्कर पर पेलिकन
साकची के स्ट्रेट माइल रोड पर सीधे बढ़ने पर बारीडीह आता है, जहां एक बड़ा चौराहा है। यहां स्क्रैप आर्ट का बेहतर नमूना पेलिकन बर्ड के रूप में है। इसका आइडिया शुभेंदु को टाटा जू से मिला था, जहां 2014-15 में भोपाल स्थित सेल (स्टील अथारिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) के चिड़ियाघर से एक जोड़ा पेलिकन लाया गया था। इसे टाटा जू अस्पताल के पास जलाशय वाले बाड़े में छोड़ा गया था, लेकिन जीवित नहीं रह सके। हंस की तरह दिखने वाले लेकिन आकार में काफी बड़े पेलिकन बर्ड दिल्ली के चिड़ियाघर में पेलिकन बहुतायत में हैं।
में भोपाल.स्थित सेल (स्टील अथारिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड).के चिड़ियाघर से.एक जोड़ा.पेलिकन लाया गया था
रीगल गोलचक्कर में सबसे पहले लगा था ग्लोब
शहर में सबसे पहले 1985-86 में रीगल गोलचक्कर में एक ग्लोब लगा था, जो छोटे-छोटे स्टील के रिंग से बना था। हालांकि वह स्क्रैप नहीं फ्रेश स्टील से बना था, लेकिन था बड़ा आकर्षक। उसके पास से गुजरने वाला हर शख्स उस पर नजर डाले नहीं निकलता था। उसी के आगे वाले गोलचक्कर पर पाइप से आकृति बनी थी। ये दोनों फ्रेश मैटेरियल से बने थे, लेकिन कहीं न कहीं कबाड़ से कलाकृति बनाने के प्रेरक बने।
दूसरी कला से भिन्न है स्क्रैप आर्ट
शुभेंदु विश्वास बताते हैं कि स्क्रैप आर्ट कला की अन्य विधाओं से काफी अलग है, क्योंकि इसमें कलाकृति या मूर्ति का डिजाइन मैटेरियल मिलने के बाद तय किया जाता है। लोहे का कोई टुकड़ा जब मिलता है, तब यह सोचना पड़ता है कि इससे क्या बनाया जा सकता है। एक बार दिमाग में खाका बनने के बाद उसके सहयोगी मैटेरियल की खोज करनी पड़ती है। इसमें एक-एक स्क्ल्पचर के पीछे पांच-छह माह तक लग जाते हैं।