चिहोंड़ लता की रस्सी बेच भूख मिटा रहे सबर-बिरहोर Jamshedpur News
पूर्वी सिंहभूम जिला का घाटशिला अनुमंडल वन संपदा से खुशहाल है लेकिन यहां रहने वाले आदिवासी अब भी रोजगार की तलाश में शहरों की ओर भटकते हैं। सबसे दयनीय स्थिति लुप्तप्राय आदिम जनजाति सबर व बिरहोर समुदाय की है जो पहाड़ और जंगल छोड़कर कहीं नहीं...
घाटशिला (संस) । पूर्वी सिंहभूम जिला का घाटशिला अनुमंडल वन संपदा से खुशहाल है, लेकिन यहां रहने वाले आदिवासी अब भी रोजगार की तलाश में शहरों की ओर भटकते हैं। सबसे दयनीय स्थिति लुप्तप्राय आदिम जनजाति सबर व बिरहोर समुदाय की है, जो पहाड़ और जंगल छोड़कर कहीं नहीं जा पाते। इनका जीवन इन्हीं जंगलों-पहाड़ों में बीतता है, लिहाजा ये भोजन समेत अन्य जरुरतों को पूरा करने के लिए जंगल-पहाड़ में मौजूद जड़ी-बूटी, पत्ते, छाल, टहनी, लकड़ी आदि बेचते हैं। इन्हीं जंगलों में चिहोंड़ लता मिलता है।
जिसकी छाल के रेशे काफी मोटे और मजबूत होते हैं। सबर-बिरहोर इस लता से रस्सी बनाकर बेचते हैं, तब जाकर इनकी भूख मिटती है। दो-तीन में तैयार रस्सी झारखंड व पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्र में लगने वाले साप्ताहिक हाट में जाकर बेचते हैं। एक रस्सी की कीमत इन्हें 100 से 110 रुपये ही मिल पाती है, जो इसके पीछे लगी ऊर्जा, परिश्रम और समय की तुलना में काफी कम होती है। इसके बावजूद चिंहोड़ लता की रस्सी के प्रति इनका आकर्षण इसलिए है, क्योंकि बाजार में इसकी काफी मांग है। आदिम जनजाति के बीच रस्सी निर्माण कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है।
मंगल सबर, छूटू बिरहोर, लक्ष्मी सबर आदि बताते हैं कि पहाड़ो से लता की छाल घर लाने के बाद बड़ी मेहनत एक-एक रेशे को जोड़कर रस्सी बनाई जाती हैं। इन रस्सियों को पूरी तरह तैयार करने में तीन से चार दिन लगता है, तब बाजार में बेचने लायक बनती है। इससे किसी तरह परिवार का भरण-पोषण होता है।
भदुआ पंचायत में सबसे ज्यादा गरीबी घाटशिला अनुमंडल में सबर-बिरहोर के कई गांव हैं, जिसमें काड़ाडुबा, आसना कासिदा, कालचित्ति, झाटीझरना, बराजुड़ी समेत 22 पंचायत शामिल हैं। इनमें पहाड़ों की गोद में बसे भदुआ पंचायत में सबसे ज्यादा गरीबी है। यहां की आदिम जनजातियां आज भी गरीबी रेखा से नीचे रह रही है। गांव में सबर-बिरहोर के कुल 30 परिवार में लगभग 150 लोग हैं।
इनके पास कुछ है तो वह वनोत्पाद को पहचानने और उसे उपयोगी बनाने का हुनर। पहले ये लोग जंगलों में आसानी में मिलने वाले बेशकीमती साल, सागवान, आकाशिया जैसी विभिन्न प्रजाति की लकड़ी बाजार में बेचते थे, लेकिन जब से वन विभाग ने इसे अपराध घोषित कर दिया है, इनके हाथ पत्ते, छाल और ज्यादा से ज्यादा टूटी-फूटी टहनी ही कुछ पैसे दिलाती है।