खेल को बना दिया खिलवाड़
जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : एशियन गेम्स हो या ओलंपिक, हरियाणा के खिलाड़ियों का बोलबाला होता
जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : एशियन गेम्स हो या ओलंपिक, हरियाणा के खिलाड़ियों का बोलबाला होता है। आखिर हो भी क्यों न। एक तरफ जहां हरियाणा में संसाधनों की कमी नहीं है, वहीं राज्य सरकार खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। लेकिन झारखंड की स्थिति इसके उलट है। यहां तो राष्ट्रीय खिलाड़ी की बात छोड़ दे, अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को पूछने वाला नहीं है।
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सैफ खेल में जीता पदक, फिर भी बेरोजगार
भिलाई पहाड़ी के अशोक सोरेन को ही लीजिए। सैफ खेलों में पदक जीत चुके हैं, लेकिन आज भी बेरोजगार है। हालांकि दैनिक जागरण में खबर छपने के बाद केंद्रीय खेल राज्य मंत्री राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़ ने पांच लाख रुपये की आर्थिक मदद की, लेकिन राज्य सरकार का कोई भी अधिकारी या नेता उनका हाल जानने नहीं आया। हां, जमना ऑटो ने उन्हें नौकरी जरूर दी।
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विश्व पुलिस गेम्स में जीती पदक, पर प्रमोशन नहीं मिली
अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाज अरुणा मिश्रा को भला कौन नहीं जानता है। एशियाई मुक्केबाजी चैंपियनशिप व विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप में पदक जीत देश का नाम रोशन करने वाली अरुणा मिश्रा को इस बात का रंज है कि 2015 व 2017 में विश्व पुलिस गेम्स में पदक जीतने के बावजूद उनके विभाग ने प्रमोशन नहीं दिया। अरुणा झारखंड पुलिस में इंस्पेक्टर के पद पर तैनात हैं।
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अंतरराष्ट्रीय तीरंदाज झानू को भी मिली निराशा
लंबे संघर्ष के बाद अंतरराष्ट्रीय तीरंदाज झानू हांसदा को झारखंड पुलिस ने नौकरी तो दे दी, लेकिन प्रमोशन के नाम पर ठेंगा दिखाती रही। आज व्यवस्था से निराश झानू मायूस है।
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राष्ट्रीय पदक विजेताओं को नहीं मिली पुरस्कार राशि
यह झारखंड में खेल की विडंबना ही कहिए कि राष्ट्रीय पदक विजेता खिलाड़ी पिछले तीन साल से राज्य के लिए पदक तो जीत रहे हैं, लेकिन उन्हें राज्य सरकार की ओर से मिलने वाली पुरस्कार राशि नसीब नहीं हो रही है। नेहा तंतुबाई को ही लीजिए। गरीब परिवार से आने वाली यह मुक्केबाज पिछले दो साल से राष्ट्रीय स्तर पर झारखंड के लिए पदक जीत रहीं है, लेकिन जब पुरस्कार राशि देने की बात आती है मंत्री से लेकर संतरी तक के भौंहे तन जाती है। बेचारी नेहा, सिस्टम की नाकामियों को कोसती हुई घर वापस लौट जाती है। ऐसा ही कुछ हाल जूनियर मुक्केबाज प्रीति कुमारी, अर्चना रावत, प्रवीण कुमार का भी है।
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18 साल से बन रहा स्पोर्ट्स पॉलिसी
झारखंड स्थापना के 18 साल बीत गए, लेकिन आज तक स्पोर्ट्स पॉलिसी नहीं बनी। यह स्थिति राज्य में खिलाड़ियों की दशा को दर्शाता है। यही नहीं, रांची में स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी बनाने का राज्य सरकार ने सपना दिखाया था, लेकिन सपना धरातल पर नहीं उतर पाया।
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ठेका मजदूर है राष्ट्रीय कबड्डी खिलाड़ी
सोनारी के रहने वाले प्रेम (42) राष्ट्रीय कबड्डी खिलाड़ी हैं और उनकी स्थिति राज्य में खिलाड़ियों की स्थिति बयां कर देता है। 90 के दशक में जूनियर व सीनियर नेशनल तीरंदाजी में राज्य को पदक दिलाने वाले प्रेम आज खुद को कोसते हैं। पढ़ने की उम्र में खेल को कॅरियर बनाने का चस्का लगा। उस वक्त मां-बाप से डांट भी सुननी पड़ती थी। लेकिन कबड्डी का ऐसा जुनून कि शाम होते ही मैदान पर पहुंच जाता। राष्ट्रीय स्तर की कबड्डी में पदक भी जीते, लेकिन जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो ठेकेदारी में मजदूरी करने लगे। प्रेम कहते हैं, आप हरियाणा में देखिए, खिलाड़ियों को किस तरह प्रोत्साहित किया जाता है। लेकिन झारखंड में तो खुद का पुरस्कार पाने के लिए खेल विभाग के अधिकारियों को तलवे चाटने पड़ते हैं, फिर भी नतीजा सिफर ही रहता है।
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नौकरी की आस में अभ्यास कर रही राधिका
लेकिन इन सबके बीच ऐसे भी खिलाड़ी हैं, जो नौकरी मिलने की आस में मैदान पर खून-पसीना बहा रहे हैं। बारीडीह की राधिका को ही लीजिए। पिता गोपाल बानरा बेरोजगार हैं। मां सुखमणि किसी तरह छोटा दुकान चलाकर परिवार का भरण-पोषण कर रही है। चार भाई-बहनों में दूसरे स्थान की राधिका जैसे-तैसे मैट्रिक की पढ़ाई की। इसके बाद मां-बाप ने हाथ खड़े कर लिए। लेकिन राधिका ने जिद की उसे खेल में ही नाम कमाना है। मां सुखमणि को राधिका की जिद के आगे झुकना पड़ा। दिन भर घर का काम निपटाने के बाद वह सीधे गोपाल मैदान पहुंच जाती है। अभी तक वह दो बार जूनियर नेशनल में झारखंड का प्रतिनिधित्व कर चुकी है। कोच तिलक राम साहू बताते हैं कि अगर हमारे राज्य में भी हरियाणा की तरह खिलाड़ियों को सुविधा मिले तो अंतरराष्ट्रीय फलक पर चमक बिखेर सकते हैं।