टाटा स्टील में 92 वर्षों से नहीं हुई कोई हड़ताल, ये है खास वजह
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने टाटा स्टील प्रबंधन से वार्ता की थी। तब वर्किंग टू गेदर पर सहमति बनी थी जो अब भी लागू है। यह विश्वास है कि हर समस्या का समाधान वार्ता से संभव है।
जमशेदपुर, निर्मल प्रसाद। No strike in Tata Steel During 92 years टाटा स्टील देश की एकमात्र कंपनी है जहां पिछले 92 वर्षों में एकबार भी कोई हड़ताल नहीं हुई है। यहां अंतिम बार पहली जून 1928 को हड़ताल हुई थी।
देश में औद्योगिकीकरण की नींव टाटा स्टील ने रखी थी। यहां से पहला इंगोट (स्टील का सिल्ली) 16 फरवरी 1912 में निकली। लेकिन, वर्ष 1916 में जब कंपनी को अनुमान से अधिक मुनाफा हुआ और कर्मचारियों की मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं हुई। इस दौरान द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दैनिक उपभोग के सामान की कीमत में भी भारी वृद्धि होने लगी। कर्मचारियों में असंतोष व असुरक्षा की भावना बढ़ गई। गुलाम देश में कंपनी के अधिकतर विभागों के हेड भी अंग्रेज थे। कर्मचारियों ने प्रबंधन को अपना मांग पत्र सौंपकर एक सप्ताह के भीतर निर्णय नहीं लेने पर हड़ताल पर जाने की चेतावनी दी। लेकिन, कंपनी प्रबंधन ने कोई पहल नहीं की।
1920 में पहली बार हड़ताल
24 फरवरी 1920 में पहली बार हड़ताल हुई। इसके बाद वर्किंग टू गेदर का ऐसा समझौता हुआ जो आज भी मान्य है। इसी का नतीजा है कि केवल टाटा स्टील ही नहीं, जमशेदपुर व कोल्हान में संचालित टाटा के कल्चर को मानने वाली किसी अन्य कंपनी में भी पिछले कई वर्षों ये हड़ताल नहीं हुई है। इसके कारण कंपनी प्रबंधन भी खुश है और कर्मचारी भी।
ऐसा हुआ लेबर एसोसिएशन का गठन
24 फरवरी से 1920 में हड़ताल शुरू हुई तब कोलकाता हाईकोर्ट के बैरिस्टर एसएन हल्दर ने जमशेदपुर आकर पांच मार्च 1920 को जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन का गठन किया। 15 मार्च 1920 को शांतिपूर्ण तरीके से हड़ताल कर श्रमिकों पर घुड़सवार पुलिस ने अचानक फायङ्क्षरग कर दी। इसमें पांच मजदूरों की मौत हो गई, जबकि 21 से ज्यादा कर्मचारी घायल हो गए। सूचना मिलते ही कंपनी के तत्कालीन चेयरमैन सर दोराबजी टाटा शहर पहुंचे। उन्होंने 19 मार्च को लेबर एसोसिएशन को मान्यता देते हुए समझौता किया। श्रमिकों के वेतन में 20 से 45 फीसद की वृद्धि हुई। सवैतनिक छुट्टी, ग्रेच्युटी, कर्मचारी भविष्य निधि, कामगार दुर्घटना क्षतिपूर्ति का लाभ दिया गया।
1922 में हुई दूसरी हड़ताल
इसी वर्ष लेबर एसोसिएशन और प्रबंधन के बीच एक मांगपत्र को लेकर मतभेद हो गया। 20 सितंबर को कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। 22 अक्टूबर 1920 को मौखिक आश्वासन के बाद हड़ताल समाप्त हो गई। पर, आश्वासन पूरा नहीं होने पर कर्मियों में नाराजगी बढ़ती गई। सात अगस्त 1925 में महात्मा गांधी जमशेदपुर आए। प्रबंधन और यूनियन के बीच समझौता कराया। इसके बाद कंपनी श्रमिकों का चंदा काटकर यूनियन के बैंक खाते में जमा करने की परंपरा शुरू हुई। साथ ही बिष्टुपुर में लेबर एसोसिएशन को पहला कार्यालय भी मिला।
1928 में तीसरी व अंतिम हड़ताल
एक जून 1928 को कर्मचारियों ने तीसरी बार हड़ताल की। यही नहीं नेतृत्व करने के लिए नेताजी सुभाषचंद्र बोस से संपर्क भी किया। 18 अगस्त को नेताजी शहर पहुंचे। अध्यक्ष बनते ही प्रबंधन के साथ वार्ता शुरू की। उस समय टाटा स्टील में यह सबसे बड़ी हड़ताल साबित हुई, जो तीन माह 12 दिन चली। 12 सितंबर 1928 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस व तत्कालीन चेयरमैन सर एनबी सकलतवाला के बीच समझौता हुआ जो आज भी प्रसांगिक है। समझौते के बाद कंपनी में मातृत्व अवकाश, प्रोफिट शेयङ्क्षरग बोनस, एक्टिंग आधारित प्रमोशन, शिशु कक्ष, कर्मचारियों की सेफ्टी के लिए उपकरण जैसी अन्य सुविधाओं का लाभ मिला। इस समझौते के साथ कंपनी प्रबंधन और यूनियन के बीच वर्किंग टू गेदर पर सहमति बनी। इसमें कंपनी प्रबंधन और यूनियन से जुड़े नेताओं को शामिल किया गया ताकि कर्मचारियों की हर समस्या को टेबल पर लाकर सुलझाया जा सके।
समझौता की नींव है मजबूत
हड़ताल किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। इससे उत्पादन, उत्पादकता, मशीन और संगठन सहित कर्मचारियों को नुकसान है। टाटा स्टील में वर्किंग टू गेदर का ऐसा समझौता हुआ और इसकी नींव इतनी मजबूत है कि कर्मचारी को यह विश्वास है कि हर समस्या का समाधान टेबल पर बैठ कर, बातचीत से संभव है। इसकी वजह से 92 वर्षों ये यहां हड़ताल नहीं हुई है।
- सुरेश दत्त त्रिपाठी, वाइस प्रेसिडेंट, एचआरएम