चलो हाट चलें, आज अपनों से बात होगी; ऐसी है झारखंड के इस गांव की कहानी
पूर्वी सिंहभूम के मिर्गीटांड़ गांव में किसी कंपनी का नेटवर्क काम नहीं करता है। दस किलोमीटर दूर केशरपुर हाट में हर गुरुवार को पहुंच जाता है पूरा गांव।
मिर्गीटांड़ गांव (पूर्वी सिंहभूम), एम अखलाक। हाथ में सेल्फी स्टिक के सहारे मोबाइल से फोटो खींचकर आत्मगुग्ध इन आदिवासी युवाओं की तस्वीर पर मत जाइए। स्याह पक्ष आपको हैरान भी कर सकते हैं। इनके मोबाइल में किसी भी कंपनी का नेटवर्क नहीं है। ये यूट्यूब देख सकते हैं ना ही फेसबुक पर अपनी तस्वीरें शेयर कर सकते हैं। सोलर लाइट के सहारे चार्ज होने वाले मोबाइल से बात करना तो दूर की बात है। इन्हें अपनों से बात करने के लिए हर गुरुवार का बेसब्री से इंतजार रहता है। गांव से दस किलोमीटर दूर केशरपुर हाट में जाते हैं, और अपनों से खूब बातें करते हैं। यह कहानी पूर्वी सिंहभूम जिले के मिर्गीटांड़ गांव की है।
रांची-बहरागोड़ा एनएच-33 पर गालूडीह चौक से दाहिने करीब 15 किलोमीटर दूर पहाड़ों और घने जंगलों के बीच यह गांव बसा है। मुख्य सड़क से गांव तक पहुंचने के लिए सिर्फ एक सड़क है। अभी-अभी करीब दस करोड़ रुपये की लागत से बनी है, लेकिन टूट कर तेजी से बिखर रही है। जंगली हाथियों का झुंड जब धमक पड़ता है तो सड़क पार करना संभव नहीं। बच्चे तो कभी अकेले गुजरते ही नहीं। पहाड़ व खाई के बीच से सरपट दौड़ती यह सड़क गांव की लाइफ लाइन है।
पहली बार गांव की बेटियां पढ़ रहीं कस्तूरबा स्कूल में
38 घर और करीब पांच सौ की आबादी वाले इस गांव में पांचवीं कक्षा तक स्कूल है। हाई स्कूल के लिए दस किलोमीटर दूर बाघुडिय़ा गांव जाना पड़ता है। नौनिहालों का आंगनबाड़ी केंद्र और मतदाताओं का मतदान केंद्र सात किलोमीटर दूर नरसिंहपुर गांव में है। गांव में आठवीं से ज्यादा पढ़ा लिखा कोई नहीं है। शारंती किस्कू बताती हैं कि गांव की दस लड़कियां पहली बार 15 किलोमीटर दूर गालूडीह के कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय में रहकर पढ़ाई कर रही हैं। उनकी आंखों में डॉक्टर बनने का हसीन ख्वाब है।
सभी बेरोजगार, किसी घर में अबतक नहीं बना शौचालय
सुकना पहाड़ व ऊंचा पहाड़ से घिरे इस गांव के लखिन्द्र मार्डी तमिलनाडु गए थे। वहीं सूत फैक्ट्री में काम करते थे। लेकिन पिता की तबीयत खराब होने की सूचना पर घर लौट आए। बताते हैं कि गांव का कोई भी व्यक्ति सरकारी नौकरी में नहीं है। कई दफे जमशेदपुर और आसपास के कारखाने में कोशिश की, लेकिन रोजगार नहीं मिला। सुभाष मार्डी बताते हैं कि मकई और धान की खेती कर किसी तरह लोग गुजारा करते हैं, लेकिन कईबार हाथियों का झुंड आकर उनकी उम्मीदों पर पानी फेर जाता है। तभी शंभू मार्डी तपाक से बोलो- किसी भी घर में शौचालय नहीं बना है।
नए खंभे बता रहे हाल ही में गांव पहुंची है बिजली
सरकारी संचिकाओं में यह गांव नक्सल प्रभावित है, लेकिन अर्से से यहां नक्सली घटनाएं नहीं हुई हैं। गांव में जिस पेड़ के नीचे नक्सली 'जन अदालत' लगाया करते थे, वहां घास उग आई है। पहली बार इस गांव में सितंबर 2019 में बिजली पहुंचाई गई है। नए खंभे इसकी गवाही दे रहे हैं। माटी के घरों के बाहर आहिस्ता आहिस्ता घूम रहा बिजली का मीटर ग्रामीणों की बदल रही जिंदगी की ओर इशारा करता है।