Lockdown : आदिवासी परंपराओं में सदियों से होता रहा है लॉकडाउन और क्वारंटाइन, जानिए
Tribal Tradition. झारखंड के आदिवासी गांवों में यह प्रचलन रहा है कि अगर किसी खास इलाके में कोई बीमारी या संक्रमण फैला हो तो पूरा गांव व समाज स्वत लॉकडाउन हो जाता है।
जमशेदपुर, दिलीप कुमार। Lockdown कोरोना से बचाव के लिए दुनियाभर में जारी दिशा-निर्देशों के बाद क्वारंटाइन शब्द बहुत प्रचलन में है। क्वारंटाइन के तहत हर ऐसे व्यक्ति को 14 या 28 दिनों तक परिवार व समाज से अलग रहने के अलग निगरानी में रखा जाता है जिनमें संक्रामक बीमारी होने की आशंका होती है। संक्रमण किसी अन्य व्यक्ति में न फैले इस कारण बीमारी के संदिग्ध व्यक्ति को क्वारंटाइन में रखा जाता है।
ये व्यवस्था भले ही मेडिकल साइंस और कोरोना से जूझ रही दुनिया के लिए नई हो, लेकिन हमारी परंपराओं में यह व्यस्था सदियों से है। इसी तरह लॉकडाउन की व्यवस्था भी आदिवासी समाज में पहले से है, जिसका समय-समय पर प्रयोग होता है। झारखंड के आदिवासी गांवों में पंरपरागत तौर पर यह प्रचलन रहा है कि अगर किसी खास इलाके में कोई बीमारी या संक्रमण फैला हो तो पूरा गांव व समाज स्वत: लॉकडाउन हो जाता है। बीमारी के डर से लोग घरों से निकलना कम कर देते हैं और इस दौरान लोग किसी अन्य गांव में नहीं आते-जाते हैं। दूसरे गांवों के लोग भी उस गांव में आना-जान थोड़े समय के लिए बंद कर देते हैं।
भोजन से लेकर पूरे सिस्टम में बदलाव
संक्रमण के शिकार गांव में एहतियात के तौर पर लोग शाकाहारी भोजन करते हैं। गांवों में बाजा भी नहीं बजता है। साथ ही खुशी पर कोई अनुष्ठान नहीं होता। बीमारी का नाम लिए बगैर दूसरे लोगों को सूचित किया जाता है। जिस गांव में बीमारी फैली होती है, उसे खराब गांव कहकर संबोधित किया जाता है। इससे ही लोग समझ जाते हैं कि अभी थोड़े दिनों तक उस गांव से परहेज करना है। ऐसी स्थिति में दूसरे गांव की बरात भी बिना गाजे-बाजे के ही गांव की सीमा से पार होती है। इस समय जब कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए चहुंओर लॉकडाउन है, यहां गांवों में आदिवासी अपने पारंपरिक नीति-नियमों का पालन कर रहे हैं।
परंपरागत लॉकडाउन के पुराने किस्से
ग्राम प्रधान रह चुके 101 वर्षीय मनोहर महतो, जमींदार रह चुके मनोहर महतो बताते और जमशेदपुर से सटे देवघर पंचायत के पूर्व सरपंच 82 वर्षीय संग्राम सोरेन पुराने किस्सों का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि चाहे 1926 के हैजा के संक्रमण के दिनों की बात हो या 1968 के चेचक के दौर की। हर बार ग्रामीणों ने गांव की घेराबंदी कर 24 घंटे पहरे बैठा दिए थे। किसी को भी घर से निकलने की इजाजत नहीं थी। संक्रमित व्यक्ति के परिवार के लिए अलग व्यवस्था रहती थी। गांव का कोई दूसरा व्यक्ति उनके घर नहीं जाता था। बाहर के लोग न आ सकें इसके बाद रिश्तेदारों को सूचित कर दिया जाता था कि अभी गांव खराब है। गांव में शाम को खल्ली, सूखा गोबर, धूप जलाए जाते थे। साथ ही हर दरवाजे पर नीम की डाली लटका दी गई थी। सभी लोग नीम, करंज, महुआ का तेल लगा रहे थे। खुलेआम घूमने-फिरने की अनुमति नहीं थी।
प्रकृति में ही छिपे हैं सारे निदान
पूर्वी सिंहभूम जिले के पातकोम दिशोम के पारगाना रामेश्वर बेसरा कहते हैं कि महामारी हो या अन्य बीमारी, इन सबका निदान प्रकृति में छिपा है। चूंकि आदिवासी प्रकृति पूजक हैं। इसलिए वे प्रकृति के खिलाफ नहीं जाते हैं। कंद-मूल भी समय और मौसम के अनुसार ही सेवन करते हैं, इसी कारण किसी महामारी या संक्रमण की चपेट में जल्दी नहीं आते हैं।