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जानिए, कैसे जमीन के मालिक बन गए दिहाड़ी मजदूर

जमीन से हाथ धो चुके ग्रामीण अब फुटपाथ पर चाय बेचकर, दिहाड़ी मजदूरी कर जीवन-यापन को मजबूर हैं।

By BabitaEdited By: Published: Wed, 14 Mar 2018 03:47 PM (IST)Updated: Wed, 14 Mar 2018 03:47 PM (IST)
जानिए, कैसे जमीन के मालिक बन गए दिहाड़ी मजदूर
जानिए, कैसे जमीन के मालिक बन गए दिहाड़ी मजदूर

जमशेदपुर, विश्वरूप पांडा। बिहार स्पंज आयरन कंपनी को जर्सी गाय की संज्ञा देने वाले शिबू सोरेन के कहने पर अपनी भूमि कंपनी को दे चुके ग्रामीण पिछले चार वर्षों से कंपनी मालिक उमेश मोदी को तलाश रहे हैं। यह शख्स वर्ष 2013 के अगस्त माह में आधी रात कंपनी बंद कर चांडिल भाग गया। मजदूरों का पैसा बकाया है। किसी तरह की प्रशासनिक पहल नहीं होने से पैसा नहीं मिल रहा है। उधर, जमीन से हाथ धो चुके ग्रामीण अब फुटपाथ पर चाय बेचकर, दिहाड़ी मजदूरी कर जीवन-यापन को मजबूर हैं। 

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वर्ष 1983 में स्थापित इस कंपनी में वर्ष 1985 में उत्पादन शुरू हुआ। 600 स्थाई व 765 अस्थाई मजदूरों वाली इस कंपनी में दस हजार ठेका मजदूर भी काम करते थे। यह भारत की पहली जर्मन टेकनॉलोजी स्पंज आयरन कंपनी थी। यहां लौह अयस्क से स्पंज आयरन बनाया जाता था। उत्पादन क्षमता 2.10 लाख मीट्रिक टन था। कंपनी के पास पांच मेगावाट का पावर प्लांट भी था। कंपनी को मोस्ट एफिसिएंट कोल बेस्ड प्लांट का खिताब भी मिला था। वर्ष 2013 के 9 अगस्त की बात है। आधी रात करीब दो बजे कंपनी के मुख्य गेट पर कारखाना बंद होने का नोटिस चस्पा दिया गया। कर्मचारियों से कहा गया कि वे कहीं और नौकरी खोज लें। कंपनी का तर्क था कि कोयला और लौह अयस्क नहीं मिलने के कारण ऐसा कदम उठाया जा रहा है। अचानक लिए गए इस तरह के फैसले से रातो-रात हजारों मजदूर सड़क पर आ गए। सुबह उठकर मजदूर किससे प्रश्न पूछते? कंपनी के सभी अधिकारी भी चांडिल छोड़कर गायब हो चुके थे। 

क्या कहा था शिबू सोरेन ने 

चांडिल क्षेत्र के ग्रामीण बताते हैं कि गांव में वे लोग कारखाना स्थापित करने के पक्ष में नहीं थे। लोगों का मानना था कि खेती लायक जमीन बर्बाद हो जाएगी। इसलिए ग्रामीणों ने अपनी जमीन देने से इन्कार कर दिया था। इसके बाद झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन रैयतदारों को समझाने के लिए गांव पहुंचे। शिबू सोरेन ने ग्रामीणों के साथ एक बैठक आयोजित कर कहा- जर्सी गाय लाएं हैं, उसे आपलोग दूहिए और लाभ उठाइए। आपलोग कभी भूखे नहीं रहेंगे। उमेश मोदी (कंपनी मालिक) बहुत अच्छे आदमी हैं। शिबू सोरेन की यह बात लोगों ने मान ली। पांच गांवों के किसान अपनी कृषि योग्य जमीन देने के लिए तैयार हो गए। 

इन गांवों की ली गई थी जमीन सरायकेला खरसावां जिले के छोटालाखा, बड़ालाखा, मानीकुई, हुमिद और भादुडीह गांव के लोगों ने करीब 700 एकड़ जमीन दी थी। ग्रामीण इस क्षेत्र को पंचग्राम कहते हैं। पंचग्राम के लोग अब तो कहते हैं- बांझ हो गई जर्सी गाय। 

बिहार स्पंज आयरन श्रमिक संगठन के मीडिया प्रभारी मनोज वर्मा कहते हैं कि कंपनी मालिक ने गरीब किसानों के साथ साथ केंद्र और राज्य सरकार के साथ भी धोखाधड़ी की है। कामगारों को बगैर सूचना दिए कंपनी बंद कर दी। बकाए वेतन का आजतक भुगतान नहीं किया गया। राज्य सरकार पर दबाव बनाने के लिए मजदूरों ने कई बार आंदोलन किया, पर कोई पहल नहीं हुई। उनके अनुसार, कंपनी पर करोड़ो का ऋण बकाया है। सरकार यदि जांच कराए तो बहुत बड़े घोटाले का पर्दाफाश होगा। 

कहते हैं श्रमिक संगठन के नेता 

एक तरफ राज्य सरकार मोमेंटम झारखंड योजना के तहत नई कंपनियों की स्थापना के लिए विदेशी उद्योगपतियों को न्योता दे रही है। वहीं दो दशक पूर्व खुली कंपनियां बंद हो रही हैं। ऐसे में मोमेंटम झारखंड योजना कितनी सफल होगी। योजना का लाभ रैयतों को मिलेगा या बिहार स्पंज आयरन कंपनी जैसा हाल होता रहेगा। 

- लुसा माझी, अध्यक्ष, बिहार स्पंज आयरन श्रमिक संगठन 

कंपनी प्रबंधन के खिलाफ सरकार को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। प्रबंधन ने रैयतों के साथ अन्याय किया है। कंपनी बैठाने के लिए जमीन देकर ग्रामीणों को काफी नुकसान हुआ है। इस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। संगठन मजदूरों के हक की लड़ाई को जारी रखेगा। कंपनी मालिक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जाएंगे। 

- हाराधन बेसरा, महासचिव, बिहार स्पंज आयरन श्रमिक संगठन 

क्या कहते हैं पंचग्राम के भू-दाता 

कंपनी के लिए मैंने अपनी दो एकड़ कृषि योग्य भूमि दे दी। इसके बदले में कंपनी में स्थाई नौकरी मिली थी। नौकरी जाने के बाद अब दैनिक मजदूरी कर अपना गुजारा कर रहा हूं। न जमीन बची न नौकरी। अगर जमीन बची रहती तो खेतीकर जीवन यापन करता। 

- संतोष बेसरा, भू-दाता 

 

मैंने करीब चार एकड़ रैयती जमीन कंपनी को दी थी। कंपनी बंद होने के बाद गांव के चौराहे पर चाय की दुकान लगा रहा हूं। कंपनी मालिक व सरकार ने गरीब किसानों के साथ धोखा किया है। जमीन देने वाले ही अब भुखमरी में जीने को मजबूर हैं। चाय दुकान लगाकर किसी तरह से दो वक्त का खाना जुटा रहा हूं। 

- राधेश्याम लोहार, भू-दाता 

 

मुझे जमीन के बदले कुछ मुआवजा और नौकरी मिली थी। अब एक वक्त का भोजन जुगाड़ करना मुश्किल हो रहा है। दैनिक मजदूरी कर जीवन यापन कर रहा हूं। जब कंपनी में नौकरी थी तो परिवार बेहतर ढंग से जी रहा था। अब तो मजदूरी का काम भी रोज नहीं मिलता है। 

-गेडा मांझी, भू-दाता 


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