कबूतरों को दाना खिलाने की इनकी दीवानी देख रह जाएंगे दंग, पढिए
दीवानगी का आलम यह है कि कोई हर सुबह दाना लेकर जुबिली पार्क पहुंचकर दाना खिलाने कबूतरों के पास पहुंच जाता है, तो कोई अपनी दुकान पर बैठे-बैठे ही कबूतरों को दाना छींटता रहता है।
जमशेदपुर [वीरेंद्र ओझा]। लौहनगरी जमशेदपुर कई मायनों में अनूठापन लिए हुए है। इनमें से एक है लोगों का पक्षी प्रेम। हालांकि दूसरे शहरों में भी पक्षी प्रेमी हैं, लेकिन यहां हद की दीवानगी है। शहर में कई ऐसे संपन्न लोग हैं जो पक्षियों पर हर माह भारी भरकम पैसा और समय खर्च करते हैं।
दीवानगी का आलम यह है कि कोई हर सुबह दाना लेकर जुबिली पार्क पहुंचकर दाना खिलाने कबूतरों के पास पहुंच जाता है, तो कोई अपनी दुकान पर बैठे-बैठे ही कबूतरों को दाना छींटता रहता है। बिष्टुपुर, साकची, गोलमुरी, कदमा, सोनारी, जुगसलाई, मानगो से लेकर आदित्यपुर तक ऐसे कई दुकानदार मिल जाएंगे, जिन्हें कबूतरों की गुटरगूं से खुशी, सुकून और ऊर्जा से भर जाते हैं।
इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो इन कबूतरों को दाना खिलाकर अपनी भूख भूल जाते हैं। कबूतरों के पंख फडफ़ड़ाते हुए उड़ते हुए झुंड की तस्वीर और वीडियो बनाने वालों की भी कमी नहीं होती। कई इन कबूतरों के साथ सेल्फी लेकर ही सारे जहां की खुशी बटोर लेते हैं। आलम यह है कि कई दुकानों पर तो पक्षियों को खिलाने के लिए अनाज भी बिकने लगा है।
कफ्र्यू में आते थे दाना खिलाने
साकची का पुराना बस स्टैंड एरिया, जो एसएनपी एरिया भी कहलाता है, में अब्दुल सुभान वेल्डिंग की दुकान चलाते हैं। वे करीब 17 वर्ष से कबूतरों को दाना खिला रहे हैं। सुभान बताते हैं कि उनका यह सिलसिला तब भी नहीं टूटा, जब चार साल पहले शहर में कफ्र्यू लगा था। कफ्र्यू में सारी दुकानें बंद रहती थीं, लेकिन वे घर से दोपहर यहां कबूतरों को दाना खिलाकर चले जाते थे। जब कभी बाहर जाना पड़ता है, तो पड़ोसी दुकानदारों को बोलकर जाता हूं। उन्हें राशन वाला चावल दे देता है, आने के बाद राशन दुकानदार को पैसे देता हूं। उन्हें बचपन से ही मुर्गी, बतख, कबूतर आदि से प्रेम है। जब यहां आया तो कबूतरों को चावल छींटते-छींटते अपनी दुकान तक लाता था। अब तो ये खुद ब खुद चले आते हैं। इन्हें दाना चुगते देख अंदर से खुशी मिलती है। मेरी उम्र करीब 60 वर्ष हो गई है। जब तक बनेगा, यह सिलसिला नहीं टूटेगा।
चनाचूर के आशिक ये कबूतर
बिष्टुपुर में कमानी सेंटर के पास फकीरा चनाचूर की दुकान है। वहां सुबह से शाम तक कबूतरों का झुंड देख सकते हैं। इसके मालिक अनूप गुप्ता बताते हैं कि इन्हें चनाचूर और चीनिया बादाम बहुत पसंद है। वे ग्राहकों के साथ-साथ शोकेस से निकालकर कबूतरों को देते रहते हैं। कई ग्राहक भी उनसे चनाचूर-बादाम लेकर कबूतरों को खिलाते हैं। उनके एक ग्राहक चंडीगढ़ के हैं, जो पांच-छह माह पर शहर आते हैं। जब आते हैं तो 500 रुपये का चीनिया बादाम लेकर इन कबूतरों को खिला देते हैं। अनूप बताते हैं कि उनके दादाजी कहते थे कि इन्हें जितना खिलाओगे, उससे दुगना मिलेगा। वाकई ऐसा है। उनकी दुकान के सामने जो कबूतर हैं, वे दिन भर कहीं नहीं जाते। करीब 10 साल हो गए, इन्हें देखते हुए।
कबूतरों की गुटरगूं सुनकर दूर होती थकान
गोलमुरी के नामदा बस्ती में ठेकेदार श्रीराम दुबे रहते हैं। वे करीब आठ साल से अपने घर के सामने कबूतरों को दाना खिलाते हैं। एक बार सुबह में और दूसरी बार दोपहर का भोजन करने के बाद। उन्हें देखते ही कबूतर उनके पास आ जाते हैं, तो कुछ शरीर पर भी बैठ जाते हैं। दुबे इन कबूतरों के लिए एक बोरा चावल खरीदकर रख लेते हैं, जिसमें से रोज करीब एक-डेढ़ किलो कबूतरों को खिला देते हैं। इनका कहना है कि इससे उन्हें काफी ऊर्जा मिलती है। कबूतरों की गुटरगूं सुनकर सारी चिंता-थकान दूर हो जाती है।
बिष्टुपुर राम मंदिर कबूतर प्रेमियों का ठिकाना
बिष्टुपुर के राम मंदिर में सुबह से शाम तक कबूतरों को दाना खिलाने वाले आते रहते हैं। बिष्टुपुर राम मंदिर समिति के अध्यक्ष सीएच शंकर राव बताते हैं कि उन्हें यहां करीब 40 साल हो गए, कबूतरों को देखते-देखते। शुरू में इक्का-दुक्का लोग यहां कबूतरों को दाना खिलाने आते थे, लेकिन अब तो दर्जनों लोग नियमित रूप से सुबह से शाम तक आते रहते हैं। कबूतरों का झुंड मंदिर के मुंडेर पर बैठा रहता है। जैसे ही दाना छींटा, फडफ़ड़ाते हुए कबूतरों का झुंड उतर जाता है। कुछ लोग तो कबूतरों के लिए चावल का बोरा ही मंदिर समिति को दान कर देते हैं। दाना खिलाने वाले शनिवार और रविवार को कुछ ज्यादा ही आते हैं। राव के मुताबिक, कुछ लोग धर्म-आस्था की वजह से दाना खिलाते हैं, तो कुछ अपनी खुशी या शौक के लिए यह काम करते हैं।
आंधी-बारिश में भी पार्क जाते राजा
शहर के बड़े कारोबारी राजा सिंह कबूतरों को दाना खिलाने हर दिन जुबिली पार्क जाते हैं। यह सिलसिला करीब 22 साल से चल रहा है। राजा बताते हैं कि वैसे तो आम दिनों में 15-20 लोग कबूतरों को दाना खिलाने आते हैं, लेकिन बारिश और तूफान के समय उनके अलावा तीन-चार लोग ही आते हैं। कबूतर भी पेड़ पर उनका इंतजार करते हैं। जैसे ही थैले में चावल निकालने के लिए हाथ डालते हैं, कबूतरों का झुंड चारों ओर फैल जाता है। इनके लिए वे घर पर एक बोरी चावल खरीदकर रख लेते हैं, उसी में से पार्क आते समय एक-दो किलो छोटे थैले में लाते हैं। वह कहते हैं कि कबूतर जब फडफ़ड़ाते हुए उड़ते हैं, तो उसकी हवा लकवा-दमा समेत सांस संबंधी बीमारी में लाभदायक होती है। यह उन्होंने किसी बुजुर्ग से सुना था। उन्हें पार्क में बुजुर्गों को देखकर ही कबूतरों को दाना खिलाने की प्रेरणा मिली, वरना पार्क आते हुए तो 35 साल हो गए।