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विरोध लोक चेतना की अभिव्यक्ति

विरोध लोक चेतना की अभिव्यक्ति है लेकिन इसका तरीका उचित होन

By JagranEdited By: Published: Mon, 10 Sep 2018 08:11 PM (IST)Updated: Mon, 10 Sep 2018 08:11 PM (IST)
विरोध लोक चेतना की अभिव्यक्ति
विरोध लोक चेतना की अभिव्यक्ति

जागरण संवाददाता, जमशेदपुर : विरोध लोक चेतना की अभिव्यक्ति है लेकिन इसका तरीका उचित होना चाहिए। ¨हसा, तोड़फोड़ को विरोध का जरूरी अंग मान लेना अपरिपक्व अभिव्यक्ति ही कही जाएगी।

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यह कहना था बिष्टुपु़र स्थित मिसेज केएमपीएम इंटर कॉलेज के शिक्षक प्रो. आशुतोष कुमार झा का। दैनिक जागरण कार्यालय में वे सोमवार को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार रोकथाम अधिनियम (एससी-एसटी एक्ट) का विरोध कितना उचित विषय पर अपने विचार रख रहे थे।

उन्होंने कहा कि हमें इतिहास की कब्र पर नहीं बैठना चाहिए। सबसे पहले यह विचार करने की जरूरत है कि चुनावी माहौल की शुरुआत के साथ एससी-एसटी कानून बनाने की जरूरत सरकार को क्यों पड़ी? इसके पूर्व उच्चतम न्यायालय ने जो गाइडलाइन दिए थे, वे यूं ही नहीं दिए। लंबे समय से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार रोकथाम अधिनियम व दहेज प्रतिषेध अधिनियम का सबसे ज्यादा दुरुपयोग की बात कही जाती रही है। उन्होंने आंकड़ा प्रस्तुत करते हुए कहा कि एसएसी-एसटी एक्ट के तहत 96,000 मुकदमे देश के विभिन्न न्यायालयों में चल रहे हैं। 16 प्रतिशत से अधिक मामले फर्जी पाए जा रहे हैं। इस अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में 40 से 50 प्रतिशत तक मामले अदालतों से बाहर ही निपट रहे हैं। गौर करनेवाली बात यह भी है कि सरकारी कर्मियों पर बड़ी संख्या में इस एक्ट के तहत केस दर्ज हैं। फिर सवाल यह है कि क्या उच्चतम न्यायालय को गाइडलाइन जारी करने का अधिकार नहीं है?

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समय को जरूर पहचानें

प्रो. आशुतोष ने कहा कि हमें समय की पहचान होनी चाहिए। पहले का समाज ग्राम व कृषि आधारित था जबकि आज नगर व उद्योग आधारित है। पहले के समाज में सामंतवादी व्यवस्था का ढहता हुआ स्वरूप देखा जा रहा था तो आज अपने समय में हम अंतर्विरोध को जी रहे हैं। आज ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग के आगे आने की जरूरत है जो सामाजिक व्यवस्था का ठीक से अध्ययन कर उसे प्रगतिशील व्यवस्था में तब्दील करने में योगदान दे सके।

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कोई भी स्वयं जाति का वरण नहीं करता

हममें से कोई भी खुद यह तय नहीं कर सकता कि वह किस जाति में जाए। फिर उस जाति के साथ होनेवाले अच्छे या बुरे के लिए वह कितना भागीदार हो सकता है। इस तरह का कानून लागू करनेवाले पढ़े-लिखे और जागरूक लोगों ने देश को पीछे ले जाने का काम किया है। केवल दबाव डालने के लिए विरोध नहीं करना चाहिए बल्कि एक जन विचारधारा तैयार करने की जरूरत है जो असरदार रहे।

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बदलाव के साथ बदलने की जरूरत

यह सभी जानते हैं और समझते भी कि आज हर क्षेत्र में तेजी से बदलाव हुआ है। 1990-92 के बाद से भारत में कई तरह के बदलाव देखने को मिले। समाज में जाति व्यवस्था का स्थूल रूप विद्यमान है और राजनीति समाज व्यवस्था को नियंत्रित करना चाह रही है। जिस तरह आनन-फानन में अधिनियम को लागू किया गया, वह भी अचरज में डालनेवाला है। कम से कम पहले बहस तो की ही जा सकती थी। पूर्व के कानून में उच्चतम न्यायालय की गाइडलाइन में आखिर क्या कमी थी। यही तो कहा गया कि एससी-एसटी अधिनियम के तहत मामला दर्ज करने से पहले डीएसपी से जांच कराई जाए, इसके लिए भी समय सीमा सात दिन बताई गई, मजिस्ट्रेट से जांच कराने के बाद हिरासत अवधि बढ़ाई जाए और जमानत याचिका दर्ज की जा सकेगी।


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