थोड़ा ध्यान दें तो विदेश में फिर धूम मचाएगा चाकुलिया का चावल, ये है खासियत
झारखंड ओडिशा व पश्चिम बंगाल ही नहीं पड़ोसी बांग्लादेश तक चाकुलिया से चावल का निर्यात होता था। पूर्वी सिंहभूम जिले की अर्थव्यवस्था में इसकी अहम भूमिका थी।
चाकुलिया (पूर्वी सिंहभूम), पंकज मिश्र। कोरोना संक्रमण ने जीवन का नजरिया ही बदल दिया। कहां हम रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई से लेकर दिल्ली तक भटकते फिरते थे। पर, कोरोना ने हमें जन्मभूमि पर ला पटका है। कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के कारण हजारों प्रवासी अपने घर लौटने को मजबूर हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा वोकल फॉर लोकल ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। पूर्वी सिंहभूम जिले की बात करें तो चाकुलिया का चावल विश्व प्रसिद्ध है। कभी बांग्लादेश से लेकर जर्मनी व फ्रांस तक यहां के उत्पाद का निर्यात किया होता था। लेकिन, बुनियादी संसाधनों के अभाव में यह उद्योग असमय ही दम तोड़ गया।
चाकुलिया की दर्जनों चावल मिलों से बड़ी संख्या में ग्रामीणों को रोजगार मिला करता था। लेकिन, एक के बाद एक मिलें बंद होती गईं। बिजली की समस्या, सड़कों की बदहाल स्थिति व सरकार की ढुलमुल नीति ने इस उद्योग का बेड़ा गर्क कर दिया। सैकड़ों लोग बेरोजगार हो गए। मजदूरों का पलायन हो गया। अगर यहां की बंद पड़ी चावल मिलों को खोल दिया जाए तो एक बार फिर चाकुलिया का चावल विदेश में धूम मचा सकता है। प्रवासी मजदूरों को रोजगार मिलेगा। राज्य आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ेगा। आज भी यहां की चावल मिलों की मिसाल देश-विदेश में अक्सर दी जाती है। ऐसे में अगर सरकार ने इस ओर ध्यान दिया तो हम आत्मनिर्भर तो होंगे ही अन्नदाता भी बन जाएंगे।
चाकुलिया के चावल की विशेषता
चाकुलिया को धान का कटोरा कहा जाता था। यहां के चावल की यह विशेषता है कि इसे एक बार उबालने के बाद फिर सुखाया जाता है, पुन: उबाल कर तैयार किया जाता है। चावल मिल मालिक गणोश रुंगटा कहते हैं कि अरवा चावल शीघ्र पचता है, लेकिन उसना चावल पचने में कम से कम पांच से छह घंटे लगता है। यहां के स्थानीय निवासी काफी मेहनती होते हैं। ऐसे में शुरू से इस इलाके में उसना चावल पसंद किया जाता रहा है।
चाकुलिया में 100 साल पुराना है चावल उद्योग
झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा की त्रिवेणी पर बसे चाकुलिया में चावल उद्योग का इतिहास लगभग 100 साल पुराना रहा है। वर्ष 1912 में बिहार और ओडिशा के विभाजन के पहले मनोहरलाल बाकरेवाल ने पहला चावल मिल यहां स्थापित किया था। इसके लिए वे मशीन आदि इंग्लैंड से लेकर आए थे। तब बिजली के अभाव में भाप इंजन से मिल का संचालन होता था। बाद के दशकों में निजी पूंजी एवं परिश्रम के बल पर स्थानीय उद्यमियों ने चावल उद्योग को विस्तार दिया। धीरे-धीरे यहां चावल मिलों की संख्या बढ़ने लगी। साथ ही उत्पादन भी बढ़ा। चहुंओर चाकुलिया के चावल का डंका बजने लगा। लेकिन बाद में परिस्थितियां चावल उद्योग के प्रतिकूल हो गईं। इसका असर दिखाई पड़ने लगा। पांच से छह वर्ष पूर्व तक यहां छोटी-बड़ी मिलाकर 30 चावल मिलें अस्तित्व में थीं, जो घटकर मात्र 12 रह गई हैं। फिलहाल जो मिलें चल रही हैं, उनकी स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है। ये मिलें पूरी तरह से सीएमआर यानी सरकारी धान खरीद के बदले चावल योजना पर निर्भर हैं।
हर ब्रांड की अपनी विशेषता
चाकुलिया क्षेत्र में 25 से ज्यादा ब्रांड के चावल का उत्पादन होता है, लेकिन सुवर्णा, गंगा सुवर्णा, परम, 1010, आइआर-36 चावल की काफी मांग है। आइए जानते हैं, किस ब्रांड की है क्या विशेषता:
सुवर्णा : इसकी विदेश में भी ज्यादा मांग होती थी। यह ज्यादा मोटा होता है ना ही ज्यादा महीन। खाने में मीठा लगता है। इसका रंग सफेद होता है। लेकिन थोड़ा सुनहरा दिखता है। यही कारण है कि इसे सुवर्णा कहा जाता है। प्रति एकड़ पैदावार 25 क्विंटल है। फिलहाल थोक बाजार में कीमत 2400 रुपये प्रति क्विंटल है।
गंगा सुवर्णा : सुवर्णा की तरह गंगा सुवर्णा चावल का रंग हल्का सुनहरा होता है। इसकी खासियत है कि उत्पादन आसानी से किया जाता है। दूसरे अन्य ब्रांड के चावल की तरह इसे ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं होती। इसकी उपज प्रति एकड़ 25 क्विंटल है।
1010 : यह चावल मोटा और लंबा होता है। झारखंड के स्थानीय निवासी इस चावल को काफी पसंद करते हैं। शादी या समारोह जैसे मौके पर इसका इस्तेमाल ज्यादा होता है। प्रति एकड़ उपज 25 क्विंटल है। थोक बाजार में मूल्य 2600 रुपये प्रति क्विंटल है।
परम : वैसे तो यह सुवर्णा की तरह हल्का सुनहरे रंग का होता है, लेकिन स्वाद अलग हटकर है। स्थानीय ग्रामीण इसका रोजाना इस्तेमाल करते हैं। जबकि, यह खास मौके पर पकाया जाता है। प्रति एकड़ उपज 24 क्विंटल है। थोक बाजार में कीमत 2500 रुपये प्रति क्विंटल है।
आइआर 36 : इस हाईब्रीड धान की तुलना छत्तीसगढ़ के उत्तम धान से की जाती है। यह लंबा और पतला होता है। उपज प्रति एकड़ 22 क्विंटल है। इसका थोक मूल्य 2800 रुपये प्रति क्विंटल है।
चाकुलिया का मौसम धान के लिए मुफीद
चाकुलिया और बहरागोड़ा क्षेत्र में धान की खेती के लिए यहां की मिट्टी अनुकूल है। सीढ़ीनुमा खेत में जल संचय हो जाता है, जो खेती के लिए जरूरी है। अनुमान के मुताबिक यहां हर साल 15 लाख टन धान का उत्पादन होता है। इसमें खरीफ फसल करीब 10 लाख टन शामिल है।
वैश्विक बाजार में पकड़ बनाना जरूरी
चाकुलिया में बंद पड़ा लोधा इंडस्ट्री चावल मिल।
अगर प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत का सपना पूरा करना है तो इसमें चाकुलिया का चावल भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। चावल मिल संचालक गणोश रुंगटा की मानें तो इसके लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में चाकुलिया के चावल की ब्रांडिंग करनी होगी। यहां का चावल जर्मनी व फ्रांस तक निर्यात किया जाता था। सरकारी उपेक्षा के कारण पहचान खो गई। हमें ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भी ब्रांडिंग करनी होगी। अगर छोटे स्तर पर इसे शुरू किया जाए तो हम बड़े मुकाम हासिल कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि चाकुलिया के चावल की अपनी पहचान है। राज्य के मॉल में इसका विशेष आउटलेट लगाया जा सकता है।
ये कहते श्रमिक
- अगर मुझे अपने घर में ही काम मिल जाता तो फिर 1500 किलोमीटर दूर कमाने क्यों जाता? चाकुलिया में दर्जनों चावल मिलें हैं, अगर उसे खोल दिया जाता तो रोजी रोटी तो चल ही जाता। भला कौन घर से बाहर जाकर रहना चाहता है, लेकिन पेट की मजबूरी अपको दूसरे शहर तो क्या दूसरे देश तक ले जाती है।
-शकीला टुडू, कालापथर पंचायत
- कभी हमारे चाकुलिया की चावल मिलों का बोलबाला था। लेकिन आज इक्का-दुक्का ही चल रहे हैं। मिल बंद होने के कारण परिवार पालने के लिए हमें बाहर का रास्ता देखना पड़ा।
-सुखलाल मुर्मू, कालापाथर पंचायत
- बाबू, हम गरीब आदमी हैं। मजबूरी में ही बाहर कमाने जाते हैं। अगर घर में ही काम मिल जाए तो फिर उतना दूर क्यों जाएंगे। चाकुलिया में मिलें खुल जाती तो रोजगार तो मिल जाता।
-विक्रम किस्कू, कालापाथर पंचायत
- देखिए मेरा हाथ, कैसा हो गया। आंध्र प्रदेश के एक ईंट भट्ठा में काम करता था। लॉकडाउन में कमाई खत्म हो गई तो बचत खर्च कर घर पहुंचा है। यहीं रोजगार होता तो ठीक होता।
-दसमत हेंब्रम, सोनाहारा
- बहुत मुश्किल से घर पहुंचा हूं। तेलंगाना गया था काम करने। लेकिन लॉकडाउन ने रोजी रोटी छिन ली तो घर आना पड़ा। चावल मिलें खुल जाती तो कभी नहीं बाहर जाता।
-मंगल कालिंदी, सोनाहारा।