कहानियां सुनाते हैं कोल्हान के पहाड़
कोल्हान के पहाड़ों के पीछे की कहानी सुनकर आप दंग रह जाएंगे। किस्से बेहद दिलचस्प हैं। हर पहाड़ कुछ कहानी सुनाते नजर आएंगे।
यूं तो झाड़ व जंगल के कारण ही अपने प्रदेश का नाम झारखंड पड़ा, लेकिन इस प्रदेश के कण-कण में रोचक किस्से तैरते रहे हैं। कोल्हान के पहाड़ भी इन्हीं में से एक हैं। यह इलाका दर्जनों पहाड़ों से घिरा हुआ है। यही इस क्षेत्र की खूबसूरती का राज भी है। यहां के पहाड़ न सिर्फ जिंदा हैं, बल्कि उनके नाम भी हैं। इन नामों के पीछे एक कहानी भी है। इस कहानी से रूबरू करा रहे हैं- वीरेंद्र ओझा।
सिंहभूम के पहाड़ों का राजा दलमा
इतिहासकार बताते हैं कि मुगलकाल में यहां तीन प्रांत थे। सिंहभूम, मानभूम और वीरभूम। मान्यता है कि सम्राट अकबर ने अपने सेनापति मान सिंह को ये तीनों इलाके दान में दिए थे। भौगोलिक दृष्टिकोण से एक क्षेत्र होने के बावजूद मानभूम और वीरभूम प. बंगाल में चले गए, जबकि सिंहभूम एकीकृत बिहार में रह गया। इन तीनों में सिंहभूम का क्षेत्रफल ना केवल सबसे बड़ा था, बल्कि यहां का दलमा पहाड़ भी क्षेत्र की सभी पहाड़ियों में सबसे बड़ा था। जमशेदपुर से सटे दलमा पहाड़ की कहानी भी काफी रोचक है। इसे सिंहभूम के पहाड़ों का राजा कहा जाता है। इसके नामकरण को लेकर तरह-तरह की किंवदंती है। शहर के कथाकार जयनंदन बताते हैं कि एक मान्यता के मुताबिक दलमा में पहले बाघ काफी संख्या में थे। उनकी चिंघाड़ से ग्रामीण आतंकित रहते थे। स्थानीय भाषा में इसे दलमा कहते थे। एक मान्यता यह भी है कि दलमा नामक एक देवी थी, जो इसी पहाड़ की गुफा में गुम हो गई। वहीं पूर्व विधायक व इतिहासकार सूर्य सिंह बेसरा बताते हैं कि इस पहाड़ का पहले कोई नाम नहीं था। तलहटी में बसे गांव के नाम से इस पहाड़ का नाम दलमा पड़ गया।
सेरेंगदा से बन गया सारंडा
कभी एशिया के सबसे घने जंगल के रूप में प्रसिद्ध रहा सारंडा कोल्हान की धरोहर भी है। पश्चिमी सिंहभूम जिला में पड़ने वाला यह जंगल मूलत: पहाड़ियों से ही आच्छादित है, जो 820 वर्ग किलोमीटर में फैला है। इसका इस्तेमाल कभी सरायकेला राज परिवार शिकार के लिए करता था। यहां कई झरने हैं। पहाड़ की चोटी से जब पानी की बूंद गिरती हैं, तो उससे संगीतमय ध्वनि निकलती है। उस ध्वनि को हो भाषा में 'सेरेंगदा' कहते हैं। कालांतर में सेरेंगदा का ही अपभ्रंश सारंडा हो गया। सारंडा के बीच में थोलकोबाद है। लगभग 1800 फुट की ऊंचाई पर स्थित थोलकोबाद जमशेदपुर से करीब 160 किलोमीटर और मनोहरपुर से 46 किलोमीटर दूर है। लौह अयस्क का प्रचुर भंडार होने के साथ सारंडा में साल के वृक्ष बहुतायत में हैं, लेकिन इसके अलावा महुआ, कुसुम, आम, जामुन, कटहल, गूलर आदि के पेड़ भी काफी संख्या में हैं। यह जंगली हाथियों की आश्रयणी है, तो यहां सांबर-चीतल, जंगली भैंसा के साथ तेंदुआ भी पाया जाता है।
नरुआ से हो गया नरवा
पूर्वी सिंहभूम जिला में जादूगोड़ा के पास नरवा पहाड़ है, वह आज यूरेनियम माइंस की वजह से प्रसिद्ध है। इसका नामकरण नरुआ नामक गांव की वजह से नरवा हो गया। करीब एक-डेढ़ सौ साल पहले तक किसी को पता नहीं था कि इस पहाड़ में यूरेनियम का भंडार है। भूगर्भ विशेषज्ञों ने जब इसकी खोज की, उसके बाद इसे यूरेनियम कारपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड ने ले लिया। इसी पहाड़ पर जादूगोड़ा का प्रसिद्ध रंकिणी मंदिर भी है, जो आज पर्यटन स्थल बन गया है।
सांप का घर था बिंगबुरु
पूर्वी सिंहभूम जिले के पोटका प्रखंड में एक पहाड़ है, जिसका नाम है बिंगबुरु। आदिवासी भाषा में बिंग का अर्थ सांप और बुरु का अर्थ पहाड़ होता है। कहते हैं कि इस पहाड़ में सांपों का झुंड रहता था। वैसे सांप तो सभी पहाड़ और जंगल में रहते हैं, लेकिन यहां इनका आतंक था। सांपों की वजह से इस पहाड़ का नाम पड़ गया।
बादामी रंग का बादाम पहाड़
बादाम सिंहभूम की सीमा से सटा ओडिशा में पड़ता है। इस पहाड़ के पत्थर ना केवल बादामी रंग के हैं, बल्कि अधिकांश पत्थरों का आकार भी ऐसा है कि दूर से देखने पर चीनिया बादाम जैसे लगते हैं। इस इलाके में पीले-पीले पत्थर बहुतायात में देखने को मिल जाएंगे। वैसे कुछ जानकार बताते हैं कि पहाड़ का नाम बादाम गांव के नाम पर पड़ा। यहां 1926 में टाटा रिफ्रैक्ट्रीज प्लांट की स्थापना की गई थी। काफी दिनों तक टाटा स्टील के अयस्क यहीं से होकर आते थे।
लाल रंग का रांगा पहाड़
पूर्वी सिंहभूम जिले के डुमरिया प्रखंड में रांगा पहाड़ है, जिसका नामकरण लाल रंग की वजह से हुआ। स्थानीय बोली में लाल को रांगा कहा जाता है। इसी गांव के पास रांगामटिया भी है, जिसका नाम लाल मिट्टी की उपलब्धता से पड़ा। यह मिट्टी घरों की रंगाई-पुताई में भी इस्तेमाल किया जाता है।
लोटा हातु से लोटा पहाड़
पश्चिमी सिंहभूम जिला में चक्रधरपुर के पास लोटापहाड़ है। इसके नामकरण को लेकर तरह-तरह की किंवदंती है। रेलवे लाइन से यह पहाड़ नजर आता है, जिसका आकार-प्रकार लोटा जैसा है। शायद इसी वजह से इसका नाम लोटापहाड़ पड़ गया। पहाड़ के नीचे लोटाहातु नामक गांव भी है। आदिवासी भाषा में गांव को हातु कहा जाता है।
करीब 170 करोड़ वर्ष पुराना है दलमा पहाड़
डॉ. नंदिता नाग, विभागाध्यक्ष, भूगर्भ विज्ञान, जमशेदपुर को-आपरेटिव कालेज कहती हैं कि पूर्वी सिंहभूम जिला का दलमा पहाड़ 170 करोड़ वर्ष पुराना है। दलमा का महत्व इस लिहाज से भी बढ़ जाता है, क्योंकि पश्चिमी सिंहभूम में पड़ने वाले सारंडा जंगल व पहाड़ भी दलमा का विस्तार है। इसे ओंगारबीरा वन क्षेत्र भी कहा जाता है। इसके अलावा मुसाबनी क्षेत्र के राखामाइंस समेत आसपास के पहाड़, जिसे धानजोड़ी भी कहा जाता है, की उत्पत्ति 250 करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी। यहां के सभी पहाड़ ज्वालामुखी के विस्फोट से बने हैं। इन पहाड़ों की उम्र का पता रेडियो एक्टिव डेटिंग से किया गया है। ज्ञात हो कि पृथ्वी की उत्पत्ति 400 करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी।