देखो! आंगन में मुस्कुराने लगा ऋतुराज वसंत
पेड़-पौधों से एक-एक कर झड़ रहे पुराने पत्ते ऋतुराज का स्वागत कर रहे हैं। फूलों पर मचल रहीं तितलियां व गीत गा रहे भौंरे फिजां में मस्ती घोल रहे हैं।
जमशेदपुर, जेएनएन। धरा के आंगन में मदमस्त ऋतुराज वसंत पधार चुका है। हवाएं इस बात की गवाही दे रही हैं। पेड़-पौधों से एक एक कर झड़ रहे पुराने पत्ते ऋतुराज का स्वागत कर रहे हैं। फूलों पर मचल रहीं तितलियां व गीत गा रहे भौंरे फिजां में मस्ती घोल रहे हैं। काली कोयलिया भी कूकने ही वाली है। ऐसे उत्सवी और रंगीन मौसम में लौहनगरी के कवियों की कलम भला कैसे खामोश रह सकती है। ये भी अपनी कविताओं से ऋतुराज वसंत का इस्तकबाल कर रहे हैं। पेश है कुछ कवियों की ऋतुराज वसंत पर केंद्रित कविताएं।
बसंती हवा
सुना था, बसंती हवा को गुनगुनाते देखा था, कभी सरसों को लहराते उड़ी थी, कभी धानी चुनरिया ठुमकी थी, पनघट पर भी गोरिया ढूंढती हूं, मैं आज इन नजारों में बिखरे स्वप्निल खुद ख्वाबों में थे संजो, जिन्हें बंद पलकों में ले उड़ी, कारखाने की चिमनियां हो गई, गुम जिसमें ये खुशियां। हवा बसंती, वो अंगड़ाइयां तितलियों संग सारी अठखेलियां रही मचलती, सीने में धरती की धुएं संग, जीवन की रंगीनियां।
- डॉ. जूही समर्पिता
एक मधुरिम वसंत
न खुशियां हों कम, न उम्मीद का हो अंत, हर किसी के हिस्से हो, एक मधुरिम वसंत! कूक कोयल की गीत लगे नैनों में मौन प्रीत जगे, पीली सरसों दिखने लगे प्रेम पंथ का संत, हर किसी के हिस्से हो एक मधुरिम वसंत! अपनों के साथ तले जीने की राह मिले ऊर्जा उजास राग फैले दिक् दिगन्त हर किसी के हिस्से हो एक मधुरिम वसंत!
- डॉ. कल्याणी कबीर
बसंत जरा आना
कैसा हुआ आना, बसंत तेरा आना इस बार जो आना तो अरमा सजाना।। झूमती न बेटिया ज्यों प्यार सी बयार बौराई मधुमक्खी, न भ्रमर का गुंजार, कहां गया गुलमोहर, दोस्त वो पलाश, पूछ रही कोइलिया छेड़ के तराना कैसा हुआ आना, बसंत तेरा आना। नन्हकू भी पूछ रहा फूलों का रंग तितलियों का संग और बाग की उमंग, कहां गया जीवन का मस्त वो जमाना। क्यूं बस मुझे अब किताब ही पढ़ाना। कैसा हुआ.. भैया का प्यार बसे भाभी की चूड़ियां कब से पुकारे उन्हें माथे की बिंदिया इस बार न हुआ क्यूं सरहद से लौटना!! मुझको न आता इन्हें धीरज धराना।। कैसा हुआ आना.. कह रही है अंगने की नन्ही सी मुनिया लौटा दो बचपन, वो गुड्डे वो गुड़िया आबरु के डर से न मुझको डराना, ना आख भरे आसू, ना ज़हर पी जाना। कैसा हुआ आना..
- संध्या सूफी
बासंती मन
एक बार फिर लौटा है बसंत, मुस्कराई कलियां भावनाओं की, रोम रोम पुलकित आलोकित स्नेह किरण, स्वाति बूंद से छलके मुक्ता कण, दुख के अंधेरों का होने लगा है अंत एक बार फिर लौटा है बसंत, सृजन की हथेलियों पर, मेंहदी के फूल खिले नूपुर के गीत बजे, थिरक रहा अंतर में, हरसिंगार जैसा मन, एक बार फिर लौटा है बसंत, हरी हरी दूबों पर, पांव मचलना चाहें मन चाहे किसी की न सुनूं आज, झूमूं, नाचूं, गाऊं, साथ लिए गीतों के नवल वृंद, एक बार फिर लौटा है बसंत
- पद्मा मिश्रा
देखो रे सखी
देखो रे सखी बसंत ऋतु आयो पीली साड़ी पीली चूड़ी पहनने को मन ललचाए खेतों में पीले पीले सरसों के फूल आयो रे शीत ऋतु गयो रे वीणा वादिनी को पूजने का समय आयो रे कोकिला छेड़ती कुहू कुहू आम पेड़ों पर मंजर आयो रे देखो रे सखी बसंत ऋतु आयो रे
- पल्लवी दीप
वसंत
जीवन का मधुमास वसंत मन का उद्गार वसंत पतझड़ की वीरानी में हंसता आया श्रृंगार वसंत कोकिल का मधुर गान वसंत हवा की थिरकन साथ वसंत ठूंठ पड़े दरख्तों में नव किसलय बना लिबास बसंत कलियों की मुस्कान बसंत मंजरियों की गंध वसंत वृक्षों की शाखाओं में हरियाली बना उन्माद बसंत कली पर अली की होड़ वसंत स्वर्णिम किरणों की भोर वसंत जीव जगत के अधरों पर पलवल बना मनुहार वसंत जीवन का मधुमास वसंत..
- उमा सिंह किसलय
आई बहार
हवा झुलाये डाली डाली पंक्षी ने मीठी तान सुनाई दिशाओं ने पुकार लगाई मधुर सुर छेड़े कृष्ण कन्हाई प्रकृति ने फिर ली अंगड़ाई लद गयी फूलों से टहनी टहनी प्राची में खोल निज दृग द्वार झूमे पुष्प शोख रंग लिए अपार जीवन की ग्रंथी खोल खोल झूमे देखो मदमस्त पवन भौरों संग बाटें सुगंध जगे उमंग छलके रस कलश खोल स्मृति पट स्वर लय से गूंजे धरती आकाश दमके तनमन पहन बासंती परिधान ह्रदय में लिए अद्भुत थिरकन जनजन में जागा हर्ष उल्लास राग रास रंग रस सुगंध संग आया मदन ऋतुराज बसंत आयी बहार आयी बहार.. - डॉ. आशा गुप्ता
मेरा बसंत
मन के निभृत कोने में छिप कर बैठा है मेरा बसंत।। मौका पाते ही पल भर में सजा देता है सपने पलकों पर फूलों की डलिया ला-लाकर भर देता खुशबू से आंचल सुंदर सलोना प्यारा न्यारा मन के निभृत कोने में छिप कर बैठा है मेरा बसंत।। कभी पवन बन नटखट-नटखट उलझाता अलकों को लट को कभी गुनगुना कर कानों में छेड़ जाता है राग बसंती मदमस्त छबीला निर्मल पावन मन के निभृत कोने में छिप कर बैठा है मेरा बसंत।। वो बसन्त अब क्यों नहीं आता जब कली फूल पत्ते क्यारी लगते थे सब अपने अपने गुनगुन करते भौंरे तितली भर जाते थे मीठे सपने लुक छिप वाला भोला भाला वो बसंत अब क्यों नहीं आता।। वो मीठी मीठी हवा बसंती रोम रोम में सिहरन भरती गौरैया बुलबुल कोयल गिलहरी कित कित, पीट्ठो, छुपन छुपाई मस्त मस्त झूले वाला वो बसन्त अब क्यों नहीं आता।।
- डॉ. निधि श्रीवास्तव
वर दो
हे शारदा, हे मां श्वेत वस्त्र धारिणी मन निर्मल हो जाये, वर दो। हे वीणापाणी, हे मां शास्त्र रूपिणी, चंचलता न भटका पाये, वर दो। हे भारती, हे मां वीणा धारिणी, गूढ़ विषय है जीवन, बुद्धि बल दो। हे वाणी, हे मां ब्रह्म स्वरूपणी, निर्भय हो जी पाऊं, अभय दान दो। हे विचारणा, हे मां विद्यादायिनी, भाव गढ़ूं सहज वो सक्षमता दो। हे वाराही, हे मां पुस्तक धारिणी, ज्ञान कला का साधक बन पाऊं, वर दो। हे शुभदा, हे मां वीणा वादिनी, भक्ति भाव से भर जाऊं, वर दो । हे शतरूपा, हे मां सुवासिनी, जीवन सार्थक कर पाऊं, वर दो ।
- सुनील कुमार शर्मा, उपमहाप्रबंधक, दक्षिण पूर्व रेलवे