Durga Puja 2020 : आज भी आंखों के सामने कौंध जाता है बचपन
Durga Puja 2020 .इस बार दुर्गापूजा में कोई चहल-पहल नहीं है। मेला-ठेला नहीं लगा है जिससे बच्चे-युवा निराश हैं लेकिन बुजुर्ग क्या सोच रहे हैं यह देखने वाली बात है आज के दुर्गापूजा के माहौल और 50 साल पहले की पूजा में कितना अंतर आ गया है।
जमशेदपुर, जासं। इस बार दुर्गापूजा में कोई चहल-पहल नहीं है। मेला-ठेला नहीं लगा है, जिससे बच्चे-युवा निराश हैं, लेकिन बुजुर्ग क्या सोच रहे हैं, यह देखने वाली बात है आज के दुर्गापूजा के माहौल और 50 साल पहले की पूजा में कितना अंतर आ गया है।
उस समय माता-पिता के अलावा दादा-दादी से चार आना से लेकर आठ आना मिलता था। उतने पैसे से ही लगता था कि हम सपनों की दुनिया में आ गए। शहर के प्रसिद्ध उद्योगपति रामकृष्ण चौधरी कहते हैं कि 1955 की बात है, उस समय दोस्तों के साथ साइकिल से मेला घूमने जाते थे। इतना आनंद और खुशी मिलती थी, जो आज हजारों रुपये खर्च करने में नहीं मिलती। इस संबंध में जब शहर के बड़े बुजुर्गों से की गयी बात तो उन्होंने अपने बचपन में दशहरा के संबंध में कई आश्चर्यजनक कहानी सुनाई। प्रस्तुत है मनोज सिंह की रिपोर्ट:
घर से मिठाई लेकर बैलगाड़ी में जाते थे मेला
बचपन में दुर्गापूजा या यूं कहिए कि दशहरा का बड़ा ही बेसब्री से इंतजार रहता था। पांच भाई का संयुक्त परिवार में 30 से 35 लोग एक साथ बैलगाड़ी सवार होकर अपने गांव से बांका जिला के खेसर जाते थे। घर में मिठाई बनाकर ले जाते थे। दुर्गा मां का दर्शन करने के बाद सब एक साथ बैठकर मिठाई खाते थे। इसके बाद सब खुशी से घर आ जाते थे। यह बात 1941 की है। जब चाचा या बड़े पिता जी से एक या दो आना मिल जाता था। जिससे इतनी खुशी मिलती थी कि आज वह खुशी गायब है। पहले भक्ति भाव से लोग एक दूसरे के यहां आना-जाना, मिलना जुलना लगा रहता था। आज धीरे-धीरे वह संस्कार गायब होते जा रहा है।
- रामकांत सिंह, व्यवसायी, टिनप्लेट
तीन भाई को मिलता था पांच रुपये, नदी किनारे देखते थे प्रतिमा
आज बच्चे दुर्गापूजा की बातें करते हैं तो यह सोंचकर सहम जाते हैं कि कोरोना हो जाएगा और सारी खुशी गायब। बचपन की दुर्गापूजा आज भी आंखों के सामने गुजर जाती है। यह बात बता रहे शहर के प्रसिद्ध व्यवसायी । कहते हैं कि 1960 में जब टाटा लाइन गोलमुरी में रहते थे, पूरा परिवार पुराना कोर्ट के पास आते थे। जब तक सारी प्रतिमा विसर्जन नहीं हो जाता था तब तक नदी किनारे ही रहते थे। हमलोग तीन भाई थे। पांच रुपये पूरा दुर्गापूजा के घूमने-खाने व खरीदने के लिए मिलता था। हम तीनों भाई खूब मस्ती करते थे।
- गुरुचरण सिंह बिंद्रा, व्यवसायी, सीएच एरिया
चार आना में मिल जाती थी साल भर की खुशियां
बात 1960 की है। जब मैं हाजीपुर से छह किमी दूर श्रीरामपुर नामक गांव में रहता था। पैसे की भारी किल्लत थी। दुर्गापूजा में पंडाल नहीं बल्कि माता के दर्शन का बड़ा ही महत्व होता था। दशहरा के दिन मेला लगता था। घर से चार आना मिलता था। उससे सारे संसार की खुशियां मिल जाती थी। दोस्तों के साथ छह किमी दूर मेला घूमने जाते थे। गुपचुप, हवा मिठाई व बैलून खरीदकर ऐसा महसूस होता था, मानो राजा हो। चारों ओर खुशी व उल्लास का माहौल होता था। एक दूसरे से मिलते थे और खुशियां मनाते थे।
- सीताराम, रिटायर डिप्टी कमिश्नर सेल टैक्स, जमशेदपुर
दशहरा में घर में परिवार के सभी लोग एकजुट होकर मनाते थे पूजा
आज मेरी उम्र 76 साल हो गयी। जब मैं बचपन की पूजा की ओर निहारती हूं तो आज अजीब से सन्नाटा नजर आता है। सभी लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त व परेशान हैं। बात 1945 की है, जब उस समय हमारे परिवार में महिलाएं घर से बाहर नहीं निकलती थी। उस समय मेरे घर में ही पूजा होती थी जिसमें परिवार के सभी लोग एकजुट होते थे जो उमंग व उल्लास व खुशी मिलते थे। वह खुशी आज किसी के चेहरे पर नजर नहीं आती। पर्व त्यौहार में सब एक साथ मिलते थे। मिठाई खाते व खिलाते थे। वह त्यौहारी खुशबू अब कहीं नजर नहीं आती।
-राधा देवी, साकची
चार आना में झूला, मिठाई व मेला का उठाते थे आनंद
बचपन में सारे पर्व-त्यौहार में सामान्य जीवन से अलग एक स्वप्न लोक के जैसा लगता था। दुर्गापूजा आते ही लगता था कि सपनों की दुनिया में घूम रहे हों। पैदल सीतारामडेरा में दुर्गा मां का दर्शन करने के बाद साकची आते थे। बात 1958 की है। घर से चार आना मिलता था। उसी में जीवन का मानो आनंद था। साकची में लकड़ी के झूला में झूला झूलते थे, नया कपड़ा पहनकर जेब में चार आना लेकर ऐसे निकलते थे, मानों पूरा बाजार व मेला अपना हो। दो पैसा में झूला झूलते थे। इसके बाद बांबे मिठाई, गुपचुप, बैलून खरीदकर ऐसे घूमते थे, मानो संसार की सभी खुशियां मिल गयी हो। आज वह सब गायब हो गया है। आज तो लोग माता का दर्शन नहीं बल्कि पंडाल देखने जाते हैं। चेहरे की खुशी गायब है।
- गोपाल सिंह, व्यवसायी, बाराद्वारी
सिहरन आते ही समझ जाते थे अब आ गया दशहरा
जब नवरात्र आते थे, मौसम की फिजां ही बदल जाती थी। हवा में एक सिहरन सी आ जाती थी। दरअसल मौसम का बदलना दशहरा पूजा आने का संकेत होता था। मेरा बचपन भोजपुर में बीता। उस समय आज की तरह बड़े-बड़े पंडाल नहीं बनते थे। गांव के मंदिर में ही मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती थी। परिवार के लोग दो दिनों पूर्व ही नए-नए कपड़े का ट्रायल करते थे। अपनी सहेलियों को नया कपड़ा दिखाते नहीं थकते थे। इसके बाद माता-पिता के अलावा मामा, नाना-नानी के साथ दशहरा घूमने जाते थे। ऐसा आनंद आता था, जिसका आज के बच्चे कभी नहीं उठा सकते हैं। वह बचपन की खुशी ही गायब है।
- अंजोरा देवी, सोनारी