स्वाद के साथ सांस्कृतिक पहचान भी है पतड़ा पीठा, जानिए क्या है इस व्यंजन की खासियत
साकरात गोम्हा राजा संक्रांति चिकाउ आदि पर्व के मौके पर आदिवासी समाज एक विशेष पकवान बनाता है। इसे पतड़ा पीठा या जिल पीठा कहा जाता है।
जमशेदपुर, दिलीप कुमार। झारखंड की मुकम्मल पहचान आदिवासी समुदाय और उनकी लोक संस्कृति से है। इनकी अनूठी परंपरा, जीवन शैली, खान-पान और भाषा-संस्कृति के कारण ही देश-दुनिया में झारखंड जाना भी जाता है। यहां लोक आस्था के पर्व-त्योहार पर गीत-संगीत व नृत्य के साथ आप पारंपरिक लजीज व्यंजन का भी भरपूर आनंद उठा सकते हैं।
साकरात, गोम्हा, राजा संक्रांति, चिकाउ आदि पर्व के मौके पर आदिवासी समाज एक विशेष पकवान बनाता है। इसे पतड़ा पीठा या जिल पीठा कहा जाता है। पतड़ा का अर्थ पत्ता, जिल का मतलब मांस और पीठा का मतलब चावल के आटा से बनी मोटी रोटी होता है। पर्व त्योहार के दौरान आदिवासी समाज में खासकर संताल समाज के हर परिवार में पतड़ा पीठा बनाया जाता है। इतना ही नहीं लोग एक-दूसरे के घर जाकर पतड़ा पीठा का स्वाद भी लेते हैं। इस व्यंजन के लिए लोग त्योहारों की प्रतीक्षा करते हैं।
ऐसे बनता है पतड़ा पीठा
वर्तमान समय में लोग खाना और विशेष पकवान बनाने के लिए नए और आधुनिक तरीके अपना रहे हैं, लेकिन इस आदिवासी समाज में अब भी विशेष व्यंजन बनाने के लिए पारंपरिक तरीके ही अपनाए जाते हैं। पहले मांस और चावल के आटा को एक साथ गूंथा जाता है। इसके बाद मोटी रोटी की शक्ल देकर नीचे और ऊपर साल का पत्ता रखकर इसे आग में पकाया जाता है। इससे पहले मांस को तेल-मसाले के साथ भून लिया जाता है। मसाले में फ्राइ मांस को पकाने के बाद ही चावल के आटा के साथ गूंथा जाता है। इसे आग में तबतक रखा जाता है जबतक कि पीठा पूरी तरह पक नहीं जाता। साल के हरे पत्ते काले नहीं पड़ जाते।
इसलिए है खास
पूर्वी सिंहभूम जिले के सरजमदा की पार्वती सोरेन बताती हैं कि पतड़ा पीठा विशेष मौके पर बनाया जाता है इसलिए परिवार के सभी लोगों को इस व्यंजन का बेसब्री से इंतजार रहता है। इसे देवी-देवताओं और पूर्वजों को भी अर्पित किया जाता है। लजीज स्वाद होने के कारण ही इसे आदिवासी समाज के अलावा अन्य लोग भी पसंद करते हैं। पतड़ा पीठा बनाने की पारंपरिक विधि की इसकी खासियत है।