Chakradharpur News: जानिए कौन थे अंग्रेजों से लोहा लेने वाले गोपाल कुम्हार, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए
Chakradharpur News 20 साल की उम्र में ही गोपालजी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। उनके राजनीतिक प्रेरणादाता दीपनारायण गुप्ता गोपाल जी को वर्ष 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता महाधिवेशन में ले गए थे। यहीं उनके दिल में देशभक्ति की लौ भड़कने लगी।
चक्रधरपुर, (दिनेश शर्मा)। मां भारती को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वालों में एक थे गोपाल कुम्हार। आजादी के दीवाने गोपाल कुम्हार उम्र के शतक के नजदीक पहुंचकर भी जोश से लबरेज थे। आठ जून 2005 को 96 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हुई। वर्ष 1930 की बात है। देश में महात्मा गांधी के अगुवाई में सत्याग्रह आंदोलन चरम पर था। 20 साल की उम्र में ही गोपालजी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। उनके राजनीतिक प्रेरणादाता दीपनारायण गुप्ता गोपाल जी को वर्ष 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता महाधिवेशन में ले गए थे। यहीं उनके दिल में देशभक्ति की लौ भड़कने लगी। 1930 के जून माह में शराब बंदी आंदोलन में भाग लेने के कारण चार माह की सजा और 25 रुपये जुर्माना हुआ। गरीबी की वजह से वे 25 रुपये जुर्माना नहीं दे सके। जुर्माना न दे पाने के कारण एक माह ज्यादा सजा हो गई। उन्हें चाईबासा जेल से भागलपुर भेज दिया गया। इसके बाद अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन में एक साल की सजा हुई। भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तारी के बाद उन्होंने फुलवारी शरीफ जेल में 10 माह की सजा काटी। उसी जेल में स्व. कुम्हार ने मार्क्सवादी शिक्षा प्रतिकूल परिस्थिति में ग्रहण की। इस जेल में उनके विचार के अनुरूप गांधीवादी विचारधारा की तरह शिक्षा नहीं दी जा रही थी, जिसके कारण आजादी के बाद वे समाजवादी पार्टी के समर्थक हो गए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की दासता के बंधन से भारत को मुक्त कराने के लिए संपूर्ण जवानी झोंक दी। कुम्हार को 15 अगस्त 2003 में राष्ट्रपति के एट होम कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता आया, परंतु जिला प्रशासन ने उम्र का हवाला देते हुए राष्ट्रपति के कार्यक्रम में उन्हें जाने से वंचित कर दिया था।
ताम्रपत्र व पेंशन थमाकर सरकार ने की कर्तव्यों की इतिश्री
आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाले गोपाल कुम्हार को आजादी के बाद ताम्र पत्र व पेंशन थमाकर सरकार ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। स्व. कुम्हार के चतुर्थ पुत्र प्रभुदयाल कुमार बताते हैं कि उनके पिता ने आजादी की लड़ाई देश की आजादी के अलावा अन्य किसी लाभ के लिए नहीं लड़ी थी। इसलिए देश आजाद होने के बाद वे फिर से आजीविका के लिए दर्जी का काम करने लगे थे। वह बताते हैं कि देश की आजादी के बाद राजनीतिज्ञों के दांव पेंच देखकर उनके पिता दुखी थे। इसलिए वे राजनीति में कभी नहीं आए। वे कहते थे आजादी की लड़ाई का तात्कालिक उद्देश्य आजादी के साथ पूरा हुआ, लेकिन हमारी आजादी अधूरी रह गई। सरकारी सहायता के नाम पर पेंशन व रेलवे पास के अलावा कुछ नहीं मिला।