Chakradharpur News: चक्रधरपुर में जली थी क्रांति की पहली मशाल, कोल जनजाति ने 1831 में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ किया था संघर्ष का ऐलान
Chakradharpur News कोल जनजाति के कई लड़ाकों ने अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतंत्रता की मशाल प्रज्ज्वलित की थी। सुवन मुण्डा जैसे राष्ट्रप्रेमी ने अपने प्राणों का बलिदान देकर निकाई मुण्डा जुरिया मुण्डा जुबल मुण्डा मन्ना मुन्डा आदि स्वतंत्रता सेनानियों को राह दिखाई।
चक्रधरपुर, (दिनेश शर्मा)। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की स्वतंत्रता अनगिनत राष्ट्रभक्तों के त्याग, तपस्या और बलिदान का प्रतिफल है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में गुजरा हुआ कल आज के स्वर्णिम इतिहास के रूप में बारंबार याद किया जाता रहेगा। इतिहास के इन पन्नों में सिंहभूम के भी आजादी के दीवानों ने अपना नाम दर्ज कराया था। सिंहभूम में क्रांति का चिराग सर्वप्रथम चक्रधरपुर की धरा पर प्रज्वलित हुआ था। भारतवर्ष के राजनीतिक इतिहास में सिंहभूम जिला के स्वतंत्रता सेनानियों की जो भूमिका रही है, वह बिहार व भारत के अन्य भागों से बिल्कुल पृथक विलक्षण और मौलिक है। इस जिला के स्वतंत्रता सेनानियों की राजनीतिक मनोवृत्ति मातृभूमि के प्रति लगाव और त्याग की भावना बेहद प्रबल थी। कोल जनजाति ने तो सन् 1831 में ही ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा था। जिसके परिणामस्वरूप कोल्हान पोड़ाहाट क्षेत्र में स्वतंत्रता की आग प्रज्वलित हुई।
कोल जनजाति के कई लड़ाकों ने अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतंत्रता की मशाल प्रज्ज्वलित की थी। सुवन मुण्डा जैसे राष्ट्रप्रेमी ने अपने प्राणों का बलिदान देकर निकाई मुण्डा, जुरिया मुण्डा, जुबल मुण्डा, मन्ना मुन्डा आदि स्वतंत्रता सेनानियों को राह दिखाई। कोल जनजाति के लड़ाकों ने गंगानारायण सिंह के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के विरुद्ध घमासान युद्ध भी किया और ब्रिटिश सेना के कैप्टन हेल को मोगरा नदी के तट पर बंदी बना लिया था। इस युद्ध में करीबन 150 योद्धा मारे गए थे। खरसांवां में ''हो'' लड़ाकों ने केरा बाबू के इशारे पर ब्रिटिश चाटुकार ठाकुर चैतन्य पर हमला कर दिया। गंगानारायण सिंह हो लड़ाकों के साथ मिल गए। खरसांवां के ठाकुर चैतन्य सिंह ने सफलतापूर्वक इस आक्रमण का सामना किया इस युद्ध में गंगा नारायण सिंह मारे गए।
ब्रिटिश चाटुकार ठाकुर चैतन्य सिंह ने स्वाधीनता प्रेमी गंगा नारायण सिंह का सर काटकर दिसम्बर 1932 में सर थामस विल्किंसन को भेंट किया था। इन्हीं हो लड़ाकों को संगठित कर पोड़ाहाट नरेश राजा अर्जुन सिंह व जग्गू दीवान 1857 से 1859 ई तक ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध लड़ते रहे। दुर्भाग्यवश जग्गू दीवान बन्दी बना लिए गए और 20 नवम्बर 1857 को उनके चालीस साथियों के साथ फांसी पर लटकाते हुए जग्गू दीवान को पेड़ की दो शाखाओं से दोनों पैर बांधकर उनके शरीर के दो टुकड़े कर दिए गए। बंगाल डिस्ट्रीक्ट गजेटियर, सिंहभूम सरायकेला एंड खरसांवा के पृष्ठ संख्या-39 में अंग्रेजों ने इस सम्बंध में लिखा कि ''बर्च ने तत्काल जग्गू दीवान को मृत्युदंड देकर ब्रिटिश साम्राज्य की न्यायप्रियता का परिचय दिया।'' राजा अर्जुन सिंह बर्च के घेरे से निकलकर समीप के जंगलों में चले गए।
सरायकेला के राजा व अन्य सामन्त सरदारों ने राजा अर्जुनसिंह के विरुद्ध अंग्रेजों की लगातार मदद की। मानभूम और सिंहभूम के स्पेशल कमिश्नर लुसिंगटन ने दिसम्बर के अंत में कंपनी सरकार के पास रिपोर्ट भेजी कि सिंहभूम के विभिन्न आदिवासियों में व्यापक विद्रोह फैल गया है। कई छापामार युद्ध के पश्चात अंतत: 15 फरवरी 1859 को राजा अर्जुन सिंह सरायकेला राजा से मिली गुप्ता सूचना के आधार पर जंगल से पकड़े गए। राजा अर्जुन सिंह के पकड़े जाने से इस क्षेत्र का विद्रोह समाप्त हो गया। राजा अर्जुन सिंह (तृतीय) को कैद कर राजबन्दी के रूप में बनारस रखा गया। जहां सन् 1890 में उनकी मृत्यु के पश्चात पोड़ाहाट राज्य के टुकड़े-टुकड़े कर अंग्रेजों ने अपने चाटुकार सरदारों व जमींदारों को राजभक्ति स्वरूप सेवाओं के लिए इनाम में दे दिया।