हाजारीबाग,
मासूम अहमद: देशवासी आज गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। आज ही के दिन 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत का स्वंय का संविधान लागू हुआ। इससे देश की आम जनता को वास्तविक स्वतंत्रता का एहसास हूआ। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर स्वतंत्रता के साथ संविधानिक प्रक्रिया से सरकार और सरकारी तंत्र देश की तरक्की की ओर बढ़ने लगा।
ऐसे समय में देश आजादी में भाग लेने वाले सैकड़ों क्रांतिकारियों और बलिदानियों को याद किया जाना लाजिमी है। ऐसे तो देश आजादी में 7 लाख से ऊपर क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया जिन्हें देश नमन कर रहा है लेकिन 1857 के देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में डोरंडा छावनी से शहीद जय मंगल पांडेय और नादिर अली खां के नेतृत्व में और साथ में शहीद पांडेय गणपत राय, चमा सिंह, माधव सिंह, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, शेख भिखारी, नीलांबर-पीतांबर सरीखे झारखंड के सैकडों वीर क्रांतिकारियों ने देश आजादी के लिए बलिदान दिया जिससे अधिकांश लोग अब तक अनभिज्ञ हैं।
यहां तक कि सरकारों द्वारा उन्हें और उनके परिजनों को अपेक्षित मान-सम्मान नहीं दिया जाता। ऐतिहासिक
तथ्यों से पता चलता है कि के 1857 की क्रान्ति के दौरान शहीद जयमंगल पांडे, नादिर अली खां के साथ लगभग 500 से ऊपर की टुकड़ी बाबू वीरकुंवर सिंह की सेना से मिलने आरा जा रहे थे। इससे पूर्व डोरंडा की छावनी में इन लोगों ने अंग्रेजों को बंदी बनाकर हथियार पर कब्जा करते हुए अंग्रेजों को खदेड़ दिया था।
उधर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी अंग्रेजों को खदेड़ते हुए पश्चिम से आ रही थी। इसी बीच शहीद जय मंगल पांडे, नादिर अली खान को चतरा में ही पकड़ लिया गया। नादिर अली को गोली लग गई। शहीद जयमंगल पांडे अंग्रेजों के साथ एक घंटे तक का भीषण युद्ध चतरा की धरती पर हुआ। इसमें 56 अंग्रेजी सैनिक को अपनी जान गंवानी पडी। उन सबकी कब्र आज भी चतरा में देखी जा सकती है।
उस घटना के बाद से अंग्रेजों की निगाह शहीद जयमंगल पांडे व नादिर अली खान की टुकड़ी पर थी। इनको पकड़ने के लिए अंग्रेज पूरी शक्ति के साथ चतरा कूच कर गए। आखिरकार इन लोगों को पकड़कर 2 अक्टूबर 1857 को ट्रायल किया गया। चार अक्टूबर 1857 को दोनों के साथ डेढ़ सौ भारतीय सैनिकों को एक साथ आम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गई।
कहा जाता है कि अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोलने के पहले शहीद जय मंगल पांडे ने पुरुलिया, संबलपुर, चाईबासा, लातेहार, रोहिणी जैसी जगहों पर तैयारी कर रखी थी। बाबू वीर कुंवर सिंह को तार के माध्यम से सूचना मिल चुकी थी लेकिन इस देश के इस बहुत बड़ी लड़ाई में यहां के जमींदार व स्थानीय राजाओं ने अपने हाथ पीछे कर लिए। इससे यह क्रांति कमजोर हुई।
कहा जाता है कि अगर चतरा का युद्ध सफल हो जाता तो 1857 में ही देश आजाद हो गया होता। इतना सब कुछ होने के बाद भी आज तक इन महान नायकों को अपेक्षित मान-सम्मान और परिजनों को पहचान नहीं मिल सकी जिसके वे हकदार थे। आज भी इनके वंशज इस बात को सरकारी महकमों के बीच रख रहे हैं ताकि इन वीर सपूतों के बारे में लोग जान सकें।
इन बलिदानियों के वंशज सच्चिदानंद पांडे झारखंड सरकार से मांग करते रहे हैं कि सर्वप्रथम झारखंड में इन्हें समुचित मान सम्मान दिया जाए। इन बलिदानी क्रांतिकारियों की गाथा देश के पटल पर रखा जाए ताकि उनके खून में भी इन शहीदों की बलिदानियों की गाथा से क्रांति दौड़ती रहे।
हम कह सकते की चतरा की धरती पर हुई खूनी क्रांति आज इतिहास के पन्नों में दफन हो गई है। आवश्यकता इस बाहन क्रांतिकारियों की जीवनी को को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए ताकि देश को इनके बलिदान के बारे पता चल सके और विशेष रूप से युवा वर्ग में देश भक्ति की भावना जग सके।