मैं नहीं, 'हम' भावना को विकसित करने की जरूरत
आधुनिक समाज में आज चारों तरफ 'मैं भावना की प्रबलता' देखी जा रही है और 'हम' भावना लुप्त हो रही है।
आधुनिक समाज में आज चारों तरफ 'मैं भावना की प्रबलता' देखी जा रही है और 'हम' भावना लुप्त हो रही है। आदमी ज्ञान-विज्ञान या आर्थिक समृद्धि के क्षेत्र में जिस तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है उसी तेजी के साथ उसमें स्वार्थपरकता और आत्म-केंद्रिकता की भावना बढ़ती जा रही है। एक ओर वह चांद के बाद मंगल ग्रह तक पहुंचने की दावेदारी पेश करने की तैयारी में हैं दूसरी ओर वह अपने निकट पड़ोसी से कोसों दूर होता चला जा रहा है। उसने अपने चारो ओर अहंकार की एक दीवार खड़ी कर रखी है। अपनी पैरवी और पो¨स्टग के लिए, अपने व्यापार की उन्नति के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। खोखले स्टेटस और खोखली भौतिक समृद्धि के पीछे भागता आदमी 'न्यूकिलियर फैमिली' की खोल में कैद होकर रह गया है। वस्तुत: अपने समाज में इस 'मैं भावना' के उद्भाव एवं पोषण के लिए पश्चिमी की व्यक्तिवादी विचारधारा दोषी है। भारत में अंगेजी शासन की स्थापना के विकास के साथ ही औद्योगिकीकरण, नगरीकरण महानगरीकरण का तेजी से विकास हुआ। नौकरी एवं व्यवसाय की खोज में घर छोड़कर शहरों में जा बसने वाले लोगों के साथ ही व्यक्तिगत परिवार का प्रचलन बढ़ा और आदमी गांव परिवार से कटता चला गया। 'हम दो हमारे दो' के नारे ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज की आधारशिला ही संयुक्त परिवार की परंपरा रही है। कृषि-प्रधान समाज होने के कारण संयुक्त परिवार होने के कई आर्थिक, सामाजिक फायदे थे ¨कतु इसका सबसे बड़ा लाभ यह था कि संयुक्त परिवार पूरे समाज में 'हम' भावना को विकसित करने में सहायक था। संयुक्त परिवार से ही हम सेवा, सहयोग, परोपकार, सहिष्णुता के गुण सीखते थे। बचपन से हममें 'बांट-चुटकर खाय, गंगा नहाय' जैसे संस्कार डाले जाते थे। हम स्वभावत: अभावग्रस्त एवं अभिवंचित वर्ग के लोगों के प्रति संवेदनशील और दयालु हुआ करते थे। अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर स्वार्थी, दंभी और आत्म-केंद्रित बनाने वाली कुत्सित 'मैं भावना' का परित्याग करें और सामाजिक सेवा एवं परोपकार के कार्य में जुट जाएं।
डा. बलदेव पांडेय
वरीय ¨हदी शिक्षक
डीएवी पब्लिक स्कूल हजारीबाग फोटो - 4
सामाजिक विकास के लिए 'मैं' भावना का विकास सदा आपसी कलह और संघर्ष को जन्म देता है। जैसे ही हमारे भीतर 'मैं' की अनुगूंज उठती है, हम सिर्फ अपने लिए या मुट्ठीभर अपने कुनबों के लिए सोचना शुरू कर देते हैं। यही नहीं, अपने उग्रतर रूप में यही 'मैं' भावना आपसी कलह या सामूहिक टकराव का कारण बनती है और देखते-देखते खूनी रूप भी ले लेती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए हमारा समाज किसी एक जाति, धर्म या संप्रदाय से नहीं बना है। यहां एक साथ विविध मत-मतांतरों को मानने वाले, विभिन्न आस्थाओं एवं अपासना-पद्धति का आचरण करने वाले लोग सदियों से साथ-साथ रहते आए हैं। भारत की समेकित संस्कृति का प्राण-तत्तव ही 'सहिष्णुता' है। यदि कोई 'हम भावना' के विकास में ही अपनी जातीय अस्मिता की रक्षा के तत्त्व ढूंढ़ता है तो यह उचित नहीं है। उग्रता का पोषण हमेशा खूनी संघर्ष को जन्म देता है जबकि उदारता सहयोग को जन्म देती है। कामायनी में महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने सुख को विस्तृत करते हुए जग को सुखी बनाने की सीख दी है। संस्कृत के एक प्रसिद्ध सुभाषितानि में 'तेर-मेरे' की गणना करने वाले व्यवहार को तुच्छतापरक बताया गया है। उदार चरित वाले व्यक्ति ही सारी वसुधा को अपना परिवार बना पाते हैं। बाइबिल में भी कहा गया है कि अपने पड़ोसी से प्यार करने वाला ही परमात्मा के प्यार को प्राप्त कर पाता है। यदि अपने प्यारे भारत को सारे जहां से अच्छा बनाना है तो 'मैं' भावना को तोड़कर 'हम' भावना को आत्मसात करना ही होगा। कहा भी गया है- 'एकता में बल है' और यह एकता 'हम' भावना से ही उपजेगी। आओ मिलकर एक हो जाएं और जग को सुखी बनाएं। पुष्पा तिवारी
वरीय अंग्रेजी शिक्षिका
डीएवी पब्लिक स्कूल हजारीबाग