विशिष्टता राजधनवार छठ घाट की पहचान
संवाद सहयोगी, हीरोडीह (गिरिडीह) : छठ महापर्व पर राजधनवार का आयोजन दशकों से प्रदेश में काफी चर्चित रह
संवाद सहयोगी, हीरोडीह (गिरिडीह) : छठ महापर्व पर राजधनवार का आयोजन दशकों से प्रदेश में काफी चर्चित रहा है। राजघाट में लगने वाला अलौकिक मेला न केवल साजसज्जा के लिए चर्चित है बल्कि लाखों लोगों की आस्था भी इससे जुड़ी है। सभी वर्गों की सहभागिता से यह आयोजन अपने आप में कीर्तिमान बनाता जा रहा है। हर वर्ष नए एवं अनोखे आयोजन कर धनवारवासी यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि भुवन भास्कर भगवान सूर्य की प्रेरणा से हमारी आस्था और ज्यादा सबल व प्रबल रहेगी। इसी भावना एवं विश्वास के साथ इस वर्ष भी आयोजन समिति ने मेला परिसर को बेहतर ढंग से सजाने व संवारने का काम किया है।
आस्था का प्रतीक राजधनवार का छठ पर्व : राजधनवार का छठ महोत्सव लाखों श्रद्धालुओं के लिए आस्था का प्रतीक बन गया है। इस महाआयोजन की निरंतर सफलता का राज यह है कि हर कोई इस आयोजन को व्यक्तिगत रूप से लेकर तन, मन एवं धन से समर्पित रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस महोत्सव में जिस व्यक्ति का जिस रूप में योगदान होता है उसे उसी रूप में फल भी मिलता है। मान्यता यह भी है कि राजघाट में इस मंदिर में मांगी गई हर मन्नत अवश्य पूरी हुई है। चाहे पुत्र की कामना हो, निरोग होने की हो या फिर धन ऐश्वर्य की। कई उदाहरण भी खुली किताब की तरह हैं जो इस घाट की महत्ता को साबित करते हैं।
बताते हैं कि एक श्रद्धालु को सात वर्ष पूर्व स्वप्न में घाट में सूर्य मंदिर बनाने का संदेश मिला था, लेकिन आर्थिक मजबूरी के कारण वह मंदिर नहीं बना सका। फिर जब उन्हें स्वप्न में घाट में एक ईंट रखकर व्यवसाय चलाने का हुक्म हुआ तो उसने वैसा ही किया। बताया गया कि मानों उसके व्यवसाय में पर लग गए। इससे सुख-समृद्धि के साथ उसका सम्मान भी बढ़ा।
यहां उमड़ता है आस्था का जन सैलाब : भुवन भास्कर प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य की उपासना करने वाले श्रद्धालु तो देश ही नहीं विदेशों में भी हैं लेकिन बिहार व झारखंड में कार्तिक के पवित्र मास में की जानेवाले सूर्य षष्ठी अद्वितीय है। पवित्रता एवं स्वच्छता इस महापर्व का मूलमंत्र है। धार्मिक के साथ वैज्ञानिक पहलुओं को संजोए हुए महापर्व को ले जन आस्था निरंतर तीव्र होती जा रही है। इस महापर्व के मौके पर यदि धनवार की गलियों को बारीकी से देखेंगे तो आप दंग रहे बिना नहीं रहेंगे। कूडे़ कचरे का ढेर व बजबजाती नालियां जो इस शहर की गलियों में अक्सर देखा जाता है वहां बैठकर आप कुछ पल सुखद अनुभूति कर जाएंगे।
-साजसज्जा की बात ही अलग:यहां की सजावट की चर्चा प्रदेश ही नहीं पड़ोसी राज्यों में भी लोग करते नहीं थकते हैं। राजमहल के सामने बंगाल एंड ग्रुप कलाकार का बनाया गया भव्य सूर्य मंदिर में रथ पर सवार भगवान सूर्य की प्रतिमा स्थापित की गई है। इसके अलावा राजघाट में मां वैष्णव देवी के कटरा की पहाड़ियों का दृश्य दर्शाया गया है। वही घाट में बासुदेव द्वारा कृष्ण का जन्म, राधा कृष्ण की नटखट लीला, वृक्ष बचाओ अभियान, भगवान शंकर के ²श्य को कलाकारों ने अनूठे अंदाज में संजोने का काम किया है।
-राजा नदी पर बना कनाडा ब्रिज आकर्षण का केंद्र: आयोजन समिति हर साल नए-नए आयोजन कर इस महापर्व पर आस्था को निरंतर आगे बढ़ाने का सफल प्रयास कर रही है। मुख्य आयोजन स्थल राजघाट में राजा नदी पर बना कनाडा ब्रिज इस वर्ष मुख्य आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। यह पुल आधुनिक तकनीकी का बेमिसाल उदाहरण है। कुशल कारीगरों ने इस पुल पर ब्रिज के हर पहलुओं को बारीकी से संजोने का काम किया है। जब लोग इस पुल से गुजरते हैं तो कनाडा ब्रिज का सहज आनंद उन्हें मिल जाता है।
-विद्युत साजसज्जा से मिट जाता दिनरात का अंतर : मुख्य आयोजन स्थल राजघाट सहित मुख्य मार्गो में अछ्वुत विद्युत साजसज्जा की गयी है। यूं कहें कि धनवार बाजार में तीन दिनों तक दिनरात का अंतर ही नहीं दिखता। कृत्रिम दुधिया प्रकाश से जगमगाता राजधनवार का राजघाट किसी देवनगरी का सहज ही एहसास करा जाता है। इसके अलावा विद्युत स्वचालित यंत्रों का मनोहारी दृश्य भी श्रद्धालुओं को खासा लुभा रहा है। मुख्य मार्ग में दर्जनों तोरणद्वार लगाए गए हैं। बड़े होर्डिग में भी कई धार्मिक दृश्यों को दिखलाया गया है। पूरी टीम ने अद्भुत विद्युत साजसज्जा कर खूब वाहवाही लूटी है।
-दो सौ साल पुरानी है छठ पूजा:
राजधनवार के राजघाट में आयोजित होनेवाला छठ महापर्व लगभग दो सौ साल पुराना है। पूर्व बिहार सिऊर के राजा मोध नारायण देव ने सर्वप्रथम धनवार के राजघाट में छठ पूजा प्रारंभ की थी। बताते हैं कि तत्कालीन दिल्ली सल्तनत के शासक औरंगजेब के निर्देश पर उनके दो कारिन्दे बिहार के सिऊर में रंगदारी वसूली करने के लिए आए थे। राजा मोध नारायण औरंगजेब सिपहसलारों की यातनाओं से तंग आकर दरबारियों के साथ राजधनवार पहुंचे। राजधनवर में ही उन्होंने किला बनवाया एवं क्षेत्र के विकास में काम करना प्रारंभ किया। उन्होंने राजा नदी पर ही पहले पहल छठ व्रत प्रारंभ किया। यह सिलसिला आगे भी चलता रहा। अंग्रेजी हुकूमत स्थापित होने पर वे वहां के जमींदार बने फिर छठ पूजा के आयोजन को और शांति मिली। देश की आजादी के बाद जमींदारी प्रथा समाप्त हुई जिससे कुछ वर्षो तक आयोजन में कुछ गिरावट आई लेकिन 90 के दशक से राजघाट में छठ महोत्सव जन सहयोग से व्यापक रूप से प्रारंभ हुआ जो अब ऊंचाइयों पर है। आयोजन में धनवार के हर वर्ग का शत प्रतिशत सहयोग रहता है लेकिन संथालिया परिवार की विशेष सहभागिता इसमें होती है।