Tamilnadu से दुमका लौटीं बेटियों ने झारखंड में पलायन की दुखती रग पर रख दिया हाथ, अभी घर जाने की इजाजत नहीं
Pain Of Jharkhand सावित्री ने बताया कि फरवरी माह में तामिलनाडु में एक कपड़ा कंपनी में काम के लिए गई थीं। यहां का एक आदमी लेकर गया था। उसने अच्छे वेतन का लोभ दिया। उसके बहकावे में आकर 36 लोग उसके साथ चली गईं।
दुमका, जेएनएन। Pain Of Jharkhand झारखंड निर्माण के 21 साल हो चुके हैं। बावजूद यहां बेरोजगारी और पलायन की समस्या जस की तस बनी हुई है। सबसे खराब हालत संताल परगना की है। यहां की आदिवासी महिलाएं और बेटियां रोजगार की तलाश में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में भटकने को मजबूर हैं। महानगरों में महिलाओं और बेटियां मजदूरी करती हैं। इनके साथ अमानवीय व्यवहार होता है। तामिलनाडु से लौटीं दुमका की 36 बेटियों ने एक बार फिर से झारखंड की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। अलेप्पी एक्सप्रेस से शुक्रवार को धनबाद पहुंचने के बाद 36 बेटियों को दुमका भेजा गया। दुमका पहुंच कर भी वह अपने घर नहीं जाएंगी। उन्हें एक सप्ताह के लिए क्वांरटाइन कर दिया गया है।
बाहर जाकर काम करना आसान नहीं
कोई खुशी से परिवार छोड़कर इतनी दूर काम के लिए नहीं जाता है। अगर दुमका में रोजगार मिल जाए तो यहां से क्यों मरने के लिए जाएं। बाहर जाकर काम करना आसान नहीं होता है। कितनी मुश्किल होती है, यह हम ही जानते हैं। यह कहना है कि शुक्रवार को तामिलनाडु से दुमका के शिकारीपाड़ा के बरमसिया गांव की सावित्री तुरी का। सावित्री समेत मसलिया, शिकारीपाड़ा, रानीश्वर व सदर प्रखंड की 36 महिलाएं-युवतियां फरवरी माह के बाद अपने घर वापस लौटीं। इंडोर स्टेडियम में रैपिड एंटीजन किट से जांच के बाद रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद सभी को हिजला स्थित क्वारंटाइन सेंटर में सात दिन के लिए भेज दिया गया।
फरवरी में कपड़ा कंपनी में काम करने गई थीं तामिलनाडु
सावित्री ने बताया कि फरवरी माह में तामिलनाडु में एक कपड़ा कंपनी में काम के लिए गई थीं। यहां का एक आदमी लेकर गया था। उसने अच्छे वेतन का लोभ दिया। उसके बहकावे में आकर 36 लोग उसके साथ चली गईं। तामिलनाडु के तिरुपुर जिले में ब्लॉस्म नामक कपड़ा कंपनी में काम दिया गया। हर माह वेतन के रूप में आठ हजार रुपये मिलते थे। इसमें भी खाने और रहने का पैसा काट लिया जाता था। मजबूरी में काम करना पड़ रहा था। घरवालों से मिलने का मन करता था, लेकिन भेजा नहीं जाता था। कैदियों सी जिंदगी बनकर रह गई थी।
पलायन की चक्की में पिस रहे कई परिवार
वापस अपने शहर लौटीं सावित्री जैसी तमाम अन्य महिलाओं व युवतियों का कहना था कि सिल्क नगरी के रूप में उनके दुमका की पहचान बन रही है, इसके बाद भी यह दुर्भाग्य ही है कि कपड़े के काम के लिए उन्हें अपने घर-शहर से हजारों किलोमीटर दूर रहना पड़ रहा। यहां रोजगार मिल नहीं पाता और सरकार पहल करती भी है तो बात मनरेगा से आगे नहीं बढ़ पाती। मजबूरन हमारे साथ हमारा परिवार भी पलायन की चक्की में पिसता रहता है। सदर प्रखंड के खिजुरिया आसनसोल की लक्ष्मी टुडू का कहना था कि दुमका में रोजगार नहीं मिला, इसलिए वहां जाना पड़ा। मजबूरी में क्या नहीं करना पड़ता है। घर की माली हालत ठीक नहीं थी, इसलिए कम वेतन में भी जाना पड़ा। भला हो एक शुभ संदेश एनजीओ का, जो मदद के लिए आगे आया और फिर से परिवार के बीच पहुंचा दिया।
काम देना है तो हमारे हुनर का दें, रोजगार के नाम पर मनरेगा में मजदूरी न कराएं
रानीश्वर के तालडंगाल की मीनू हेंब्रम व सूखा सोरेन का कहना था कि जिला प्रशासन चाहे तो रोजगार मुहैया करा सकता है। कपड़ा के काम में अब उनकी कोई सानी नहीं है। अगर दुमका में कपड़ा कटाई का काम मिल जाता है तो फिर जिले से बाहर नहीं जाएंगी। अगर प्रशासन ने मनरेगा में मजदूरी कराई तो फिर वह काम नहीं करेंगी। अगर काम देना है तो सिलाई कटाई का दें। इसका अनुभव भी है।
सात दिन के लिए क्वारंटाइन
धनबाद से दुमका पहुंचने पर सभी महिलाओं की इंडोर स्टेडियम में कोरोना जांच की गई। जांच रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद सभी को हिजला स्थित क्वारंटाइन सेंटर में सात दिन के लिए भेज दिया गया। सात दिन के बाद सभी की फिर से जांच की जाएगी। जिनकी रिपोर्ट निगेटिव होगी, उन्हें घर जाने की अनुमति दी जाएगी। धनबाद में भी इन महिलाओं की कोरोना जांच की गई थी।
सभी महिलाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार की व्यवस्था की जाएगी, ताकि उनके सामने रोजी-रोटी की समस्या नहीं आए। प्रयास होगा कि महिलाओं की रुचि के आधार पर काम उपलब्ध कराया जा सके।
-महेश्वर महतो, एसडीओ, दुमका