April Fool से इतर यहां फूल बनाने की अनूठी परंपरा, पढ़िए दो कुल को जोड़ते चंदन और गंगा की कहानी
अप्रैल फूल के ठीक उलट झारखंड में फूल बनाने की यह परंपरा अद्वितीय है। अप्रैल फूल में जहां एक-दूसरे का मजाक उड़ाया जाता है वहीं झारखंड में फूल बनाने का अर्थ है जाति पंथ से इतर दो मित्रों के पूरे परिवार को धर्म सखा के बंधन में बांध देना।
धनबाद [ रोहित कर्ण ]। बाघमारा के अधीरचंद्र दूबे। जब छह माह के थे तो दादा कुंजबिहारी दूबे परिवार के साथ बैद्यनाथ धाम को निकले। पास के गांव धारकिरो के उनके मित्र गुहीराम तिवारी का भी परिवार साथ ही था। सुल्तानगंज में गंगा स्नान किया। कुंजबिहारी दूबे ने मित्र गुहीराम से कहा- क्यों न हम मित्रता को जन्म जन्मांतर के बंधन में बांध दें। गुहीराम तैयार थे। दोनों ने तय किया कि वे मित्र हैं ही, इस मित्रता को आगे बढ़ाने के लिए अपने पोतों को फूल बना देते हैं। कुंजबिहारी ने अपने पोते अधीरचंद्र दूबे और गुहीराम ने अपने पोते एक साल के शिवदयाल तिवारी को फूल माला पहनाई। सुल्तानगंज में गंगा मां व बाबा अजगैबीनाथ को साक्षी मानकर दोनों के गले की माला की अदला-बदली कर दी। बस इसके साथ ही दुनियादारी से अनजान दोनों शिशु फूल के रिश्ते में बंध गए।
मिललो दू कुल, पताए गेलो फूल
अब न कुंजबिहारी दूबे हैं न गुहीराम तिवारी। बावजूद दोनों के पोते तीन पुश्त पहले कायम इस रिश्ते को मान रहे हैं। दोनों ही परिवार के सदस्य फूलों सी पवित्रता के साथ इसे निभा रहे हैं। रिश्ते में बंधने के साथ ही दोनों मित्रों के पिता एक-दूसरे के लिए फूल बाबू बन गए। भाई, फूल भाई हो गए। कोई त्योहार हो या मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह या श्राद्ध, हर जगह दोनों परिवार की भागीदारी होती है। ऐसे कि जैसे सगे भाई हों। स्थानीय भाषा खोरठा में इस परंपरा को लेकर कहावत है, मिललो दू कुल, पताए गेलो फूल (दो कुल मिले और फूल बन गए)। 75 वर्षीय अधीरचंद्र धनबाद पॉलीटेक्निक में पढ़े। 1966 में बिहार टेक्निकल एजुकेशन बोर्ड के बिहार टॉपर रहे। टिस्को में अभियंता पद से सेवानिवृत्ति के बाद गांव में ही रहते हैं। शिवदयाल भी बीसीसीएल से सेवानिवृत्त होकर गांव में ही रह रहे हैं।
झारखंड की यह अनूठी परंपरा
इन दोनों की कहानी इकलौती नहीं है। दरअसल विश्व में अप्रैल फूल बनाने की परंपरा के ठीक उलट झारखंड में फूल बनाने की यह परंपरा अद्वितीय है। अप्रैल फूल में जहां एक-दूसरे का मजाक उड़ाया जाता है, वहीं झारखंड में फूल बनाने का अर्थ है जाति, पंथ से इतर दो मित्रों के पूरे परिवार को धर्म सखा के बंधन में बांध देना। भाई-भाई की तरह इस रिश्ते को पीढ़ी दर पीढ़ी निभाते हैं। अधीरचंद्र कहते हैं कि झारखंड की संस्कृति वास्तव में यही है।
जाति के बंधन से भी ऊपर फूल का रिश्ता
रोआम निवासी व्यवसायी रवींद्र तिवारी व रामाशीष रवानी भी गहरे मित्र हैं। इन्होंने अपनी मित्रता को कायम रखने के लिए बच्चों को फूल के रिश्ते में बांध दिया है। फूल बनते ही दोनों के बीच जाति का अंतर भी समाप्त हो गया। तिवारी बताते हैं कि वर्ष 2005 में अपने बेटे विश्वजीत तिवारी उर्फ चंदन व रामाशीष रवानी के पुत्र रामस्वरूप रवानी उर्फ गंगा को फूल पताया (बनाया) था। मां लिलौरी के मंदिर में पूजापाठ के बाद दोनों को माला पहनाई। उसकी अदला बदली की। अब दोनों बच्चे हमारी तरह अभिन्न मित्र व एक-दूसरे के धर्म भाई हैं। रामस्वरूप कहते हैं कि झारखंड के इस प्रेम बंधन को सामाजिक मान्यता मिली हुई है। इतनी कि जब हम झारखंड से बाहर बिहार के गया में अपने पूर्वजों को पिंडदान करने जाते हैं तो पंडा हमसे पूछते हैं, क्या आपका कोई फूल भी है। हां, कहते ही वे यजमान के माता-पिता व सास-ससुर के साथ फूल भाई के माता-पिता व सास-ससुर के लिए भी ङ्क्षपडदान करवाते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि कोई भाई में अकेले हो तो वह मित्र को फूल बना लेता है। अच्छे-बुरे समय में साथ देने के लिए फूल का परिवार हमेशा साथ रहता है।
धर्म भी आड़े नहीं आता
फूल से कोमल बच्चों को आगे कर बनाए गए इस संबंध में धर्म भी आड़े नहीं आता। मोहनपुर के अशोक कुमार महतो के फूल कोराहीर के दमन अंसारी हैं। महतो बताते हैं कि हम दोनों में गहरी छनती थी। एक दिन दमन ने प्रस्ताव दिया कि तुम्हारी भी बेटी है और मेरी भी, चलो दोनों को फूल बनाएं। फिर क्या था अगले ही दिन मोहन अपनी पुत्री हेमा और पूरे परिवार के साथ कोराहीर पहुंच गए। दमन भी अपनी बेटी खुशबू को आगे लाए। दोनों को पान-सुपारी खिलाई गई। मिठाई बांटी। दोनों परिवार फूल के रिश्ते में बंध गए। अब तो दोनों बच्चियों की शादी भी हो गई और यह रिश्ता पूरी प्रगाढ़ता के साथ चलता आ रहा है। मोहन कहते हैं फूल का घर छड़-बड़ (छूट नहीं सकता, अलग नहीं हो सकता) नहीं हो सकता।