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जब धनबाद पधारे थे विश्वप्रसिद्ध हिन्दी सेवी फादर डॉ. कामिल बुल्के

फादर कामिल बुल्के रांची स्थित संत जेवियर कॉलेज के ¨हदी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे।

By JagranEdited By: Published: Sat, 08 Sep 2018 10:52 AM (IST)Updated: Sat, 08 Sep 2018 09:26 PM (IST)
जब धनबाद पधारे थे विश्वप्रसिद्ध हिन्दी सेवी फादर डॉ. कामिल बुल्के
जब धनबाद पधारे थे विश्वप्रसिद्ध हिन्दी सेवी फादर डॉ. कामिल बुल्के

धनबाद, जेएनएन। इन दिनों पूरे भारत में हिंदी पखवारा चल रहा है। हिंदी भाषा की समृद्धि और इसके प्रचार-प्रसार के लिए हर वर्ष सितंबर महीने के प्रथम पक्ष और दूसरे पक्ष में भरसक प्रयास किये जाते हैं। खासकर सरकारी कार्यालयों में तो अनिवार्य तौर पर। अपने देश में हिंदी के विकास की जब कभी चर्चा होती है तो एक महान व्यक्तित्व महानायक के रूप में उभरकर सामने आते हैं- पद्म भूषण फादर डॉक्टर कामिल बुल्के या बुल्के बाबा। रामकथा के मूर्धन्य रचनाकार, अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोष के रचयिता और हिंदी के प्रकाण्ड विद्वान फादर डॉ. कामिल बुल्के ने एक अभारतीय होकर भी हिंदी के लिए जो कार्य किये, वह न केवल प्रेरक हैं, बल्कि इस भाषा के उत्थान के लिए हुए प्रयासों के गौरवमय इतिहास भी।

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यूरोप महाद्वीप के बेल्यिजयम नामक देश के मूल निवासी फादर डॉ कामिल बुल्के का हिंदी के प्रति समर्पण एवं उनके कृतित्व न केवल आदर्श हैं, बल्कि आज तक कोई अभारतीय उनके हिंदी के सेवा-कार्य के आस-पास भी नहीं पहुंच पाया है। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि आजाद भारत में पहली बार हिंदी में शोध-प्रबंध लिखने के लिए विश्वविद्यालयी व्यवस्था से लड़कर सफल होने वाले कोई भारतीय नहीं बल्कि बेल्जियम के कामिल बुल्के थे।

कामिल बुल्के सन् 1969 ई. में तुलसी जयंती के अवसर पर धनबाद के पी. के. रॉय मेमोरियल कॉलेज आये थे। उन दिनों वे राची स्थित संत जेवियर कॉलेज के हिन्दी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। उस समय उनका यश सूर्य पूरे भारत सहित यूरोप को उद्भाषित कर रहा था। एक वर्ष पूर्व ही यानी सन् 1968 ई. में उनके द्वारा रचित अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोष प्रकाशित हुआ था और उसकी रिकॉर्ड बिक्री हुई थी। यों तो बाबा बुल्के लेटिन, ग्रीक, जर्मन, फ्लेमिश, अंग्रेजी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, अवधी और संस्कृत के उद्भट जानकार थे। लेकिन उनका सर्वाधिक प्रेम हिंदी से था।

उस समय कॉलेज में संस्थापक प्राचार्य नकुल चन्द्र गोस्वामी थे। वे गुणी जनों का बड़ा आदर किया करते थे। वहीं हिन्दी विभाग के अध्यक्ष एस पाडेय थे जो न केवल विद्यार्थियों के बीच बल्कि सामाजिक जीवन में भी बड़े लोकप्रिय थे। गोस्वामी जी और पाडेय जी की जोड़ी के प्रयासों से ही फादर डॉक्टर कामिल बुल्के का कार्यक्रम धनबाद में संभव हो पाया था। उस आयोजन में इन पंक्तियों के लेखक ने भी न केवल भाग लिया था बल्कि महान हिन्दी सेवी की सेवा करने का अवसर भी प्राप्त किया था। दरअसल, मेरा उनसे सम्पर्क सन् 1950 के दशक से ही था जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहकर साहित्य-साधना के साथ-साथ राम और तुलसीदास के प्रति अपनी निष्ठा को मूर्त रूप दे रहे थे। 'संगम' नामक साहित्यिक पत्रिका, जिसके सम्पादक, प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. धर्मवीर भारती थे, में फादर डॉक्टर कामिल बुल्के स्थायी लेखक थे। उस पत्रिका में कभी-कभार मेरी भी रचना प्रकाशित हो जाया करती थी। 'संगम' में बाबा बुल्के के शोधपूर्ण लेखों को पढ़कर मैं आश्चर्यचकित हो जाता था। इलाहाबाद में उनके प्रत्यक्ष दर्शन करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ था। बाद में राची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ. दिनेश्वर प्रसाद एवं भाई ब्रजमोहन प्रसाद के साथ बाबा बुल्के के आवास 'मनरेसा हाउस' जाने और बाबा के साथ घटों हिंदी विषयक चर्चा करने का सुअवसर मिला था।

फादर बुल्के के धनबाद आगमन के समय आज की तरह न तो प्रचार-तंत्र विकसित हुआ था और न ही मीडिया का इतना विस्तार। लेकिन यह बाबा बुल्के की लोकप्रियता और उनके व्यक्तित्व का आकर्षण ही था कि उन्हें सुनने के लिए काफी संख्या में लोग उपस्थित हुए थे। बुल्के का धनबाद में दिया गया भाषण ऐतिहासिक बन गया। उन्होंने हिंदी के लिए कहा था-'हिंदी ही एकमात्र भाषा है जो पूरे भारत को एकसूत्र में जोड़े रख सकती है। मुझे अपनी मातृभाषा फ्लेमिश की तरह ही हिंदी से बहुत प्रेम है। मैं संविधान से मान्यता प्राप्त राजभाषा को उसके सिंहासन पर देखना चाहता हूं। जब तक हिंदी को उसके घर में सम्मान नहीं मिलेगा तबतक बाहर भी उसे कोई नहीं पूछेगा। आजादी के बाद हिंदी राजनीति का शिकार हो गयी है। प्रजातंत्र में सबको केवल अपने-अपने वोटों की चिंता है, देश का गौरव भले हाशिये पर चला गया हो। अंग्रेजी भाषा हिंदुस्तान की सारी अन्य भाषाओं के अस्तित्व के लिए संकट बन गयी है।'

यहा भाषण देने के क्रम में उन्हें कई बार खासी हो रही थी। वक्तव्य समाप्त होने के बाद मैंने पूछा- बाबा! कोई दवा लेंगे, आपको काफी खासी हो रही है। उन्होंने कहा कि कोई दवा नहीं लूंगा। यदि संभव हो, तो तुलसी-पत्र का काढ़ा पिला दो। यहा यह उल्लेख कर देना जरूरी है कि उन्हें फादर की उपाधि मिली थी। लेकिन जब उन्हें कोई फादर कहकर संबोधित करता था तो वे किंचित अप्रसन्न होते थे। वे अक्सर कहते थे कि यदि मुझे बाबा कहो, तो ज्यादा अच्छा लगेगा क्योंकि फादर अंग्रेजी शब्द है और बाबा हिन्दी। कॉलेज में उनसे छात्रों के एक समूह ने पूछ दिया, 'बाबा! इतना अच्छा शब्दकोश बनाने में कितनी मेहनत लगी?' इसपर उन्होंने हंसते हुए एक डच कविता सुनायी। उसका भावार्थ था कि यदि कोई न्यायाधीश किसी अपराधी को सख्त से सख्त सजा देना चाहता है तो उस अपराधी को काल-कोठरी में न भेजे बल्कि उसे शब्दकोश बनाने का काम करने का आदेश सुना दे। -प्रस्तुति:वनखंडी मिश्र


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