कोयलांचल में मजदूर आंदोलन का एक स्याह पक्ष; 'मलकट्टा समूह 'बेगानी शादी के 'अब्दुल्ला' की तरह बेगाना, जानिए Dhanbad News
उत्पादन बढ़ाने के जुनून में मालिकों को इतनी फुर्सत कहां थी कि मलकट्टों का दुखड़ा सुने आंसू पोंछे। जब मालिक-मजदूर के बीच संवाद का कोई कारगार माध्यम नहीं था।
धनबाद [बनखंडी मिश्र ]। भारत में कोयला उत्पादन का विधिवत श्रीगणेश 1890 के आसपास हुआ, पहले रानीगंज में और बाद में झरिया कोलफिल्ड में। देशी-विदेशी उद्योगपतियों ने जमकर उत्पादन किया - दोनों हाथों से धन को बटोरा। लेकिन, कोयला उत्पादन के इस समारोह में, 1910 तक 'मलकट्टा समूह' - बेगानी शादी के 'अब्दुल्ला' की तरह बेगाना ही बना रहा। कहीं से उनका संगठन बनाने, कल्याणकारी सामाजिक कल्याण-योजना की भनक तक नहीं लगती थी। स्थिति ऐसी थी कि जितना 'झोड़ा' (बेंत की टोकरियां) काटोगे- उतनी 'कौड़ी' मिलेगी। कौड़ी का वास्तविक मूल्य भी विभिन्न कोलियरियों में अलग-अलग होता था। हां, पश्चिमी (यूरोपीय) देशों के कामगारों की जीवन-शैली की उड़ती खबरें, भारतीय श्रमिक लोक में गूंजती जरूर थी। लेकिन उनका कोई अवदान रानीगंज-झरिया के कोयला श्रमिकों को नहीं पाता था।
उत्पादन बढ़ाने के जुनून में मालिकों को इतनी फुर्सत कहां थी कि मलकट्टों का दु:खड़ा सुने, आंसू पोंछे। जब मालिक-मजदूर के बीच संवाद का कोई कारगार माध्यम नहीं था, तब कामगारों की वाजिब शिकायतों को कौन सुनाए-कौन सुने। परन्तु, धीरे-धीरे विक्षोभ की आग तो सुलग रही थी - कोयला मजदूरों के क्षेत्र में न सही, अन्य जगहों पर तो चिनगारियां फूटने लगी थीं। 19वीं सदी के प्राय: अंतिम चरण (1873) में बंबई टेक्सटाइल मिल्स की अमानवीय कार्य-दशा की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ था। 1872-73 की अवधि के लिए बंबई सरकार की प्रशासनिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसमें विशेष रूप में काम के घंटे और औरत-बच्चे (मजदूर) की कार्यदशा पर औपचारिक चिन्ता प्रगट की गयी थी- लेकिन समस्या के लिए उचित समाधान का कोई उचित संकेत नहीं दिया गया था। बात सीधी-सी थी। 'समझने वाले समझ गये, जो न समझे, अनाड़ी हैं' के लहजे में काम चलता रहा। संयोग से, इंग्लैण्ड के लंकाशायर स्थित कपड़े कारखानों के मजदूरों के मन में हमेशा भारतीय भाई-बन्धुओं के प्रति सहानुभूति का उद्रेक हुआ और उनलोगों ने आंदोलन की ओर कदम बढ़ाया। इंग्लैण्ड के मजदूरों की सांगठनिक धमक से, भारत सरकार ने असेंबली में एक बिल (1879) पेश किया। वह बिल पास हो गया और 1881 में जो 'प्रथम कारखाना कानून' से अभिहित हुआ। उस 'कारखाना कानून 18810 में केवल कपड़ा कारखाना में काम करने वाले श्रमिकों के घाव पर हल्का मलहम लगाने की कोशिश की गयी थी। लेकिन, देश के कोयला मजदूरों की कोई भी चर्चा कैसे और क्यों होती ?
झरिया में हुआ था एटक का दूसरा और आठवां राष्ट्रीय अधिवेशनः 1919 में वैश्विक फलक पर आइएलओ (अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन) की स्थापना हुई, जिसका एक महत्वपूर्ण सदस्य भारत भी था। परन्तु समस्या यह थी कि काँग्रेस उसमें अपनी प्रभावकारी भागीदारी कैसे निभाए। इसलिए जब ऑल इंडिया कांग्रेस पार्टी ने, श्रम समस्याओं का गहन अध्ययन करने और उनका समाधन करते हुए, उनके चतुर्दिक उत्थान के लिए एक अलग संगठन 'आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस' (एआइटीयूसी) बनाया, तो उसके संस्थापक अध्यक्ष पंजाब केशरी लाला लाजपत राय चुने गए। इस नवगठित संगठन का प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन बंबई में (1920) में हुआ, जिसमें बंगाल-बिहार के कोयला मजदूरों का प्रतिनिधित्व स्वामी विश्वानन्द ने किया और उनके एक मात्र सहयोगी प्रभात चन्द्र बोस (बाद में धनबाद के पहले और दूसरे सांसद निर्वाचित हुए थे) थे। बंबई सम्मेलन में इन दोनों ने जो अमिट छाप छोड़ी, उसके फलस्वरूप अध्यक्ष लालाजी और कांग्रेस पार्टी ने यह फैसला लिया कि अगला अधिवेशन झरिया में किया जाए। पार्टी को, झरिया कोयला क्षेत्र के लिए इन दोनों नेताओं की संगठन शक्ति और कर्मठता पर पूरा भरोसा हो गया था।
बंबई से लौटने पर स्वामी विश्वानन्द ने जब यह सूचना सेठ रामजस अग्रवाल को दी तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अन्य कोलियरी मालिकों से भी इस संबंध में सहयोग करने के लिए बातें शुरू कर दी। संगठन के युवा प्रतिनिधि प्रभात ने पूरे कोयला क्षेत्र का तूफानी दौरा किया और खान मजदूरों में आश्चर्यजनक चेतना जगाई। इस कार्य में एक अन्य नवोदित नेता शिवकाली बोस ने भी सहयोग दिया। दूसरे सम्मेलन (1921) की संगठनात्मक तैयारी तो मुकम्मिल हो गयी। लेकिन, क्षेत्र के विदेशी (कुछ स्वदेशी भी) खदान मालिकों ने, बड़े लाट चेम्सफोर्ड के पास गुहार लगायी कि इस सम्मेलन को जैसे भी हो रोका जाये, क्योंकि उनकी नजर में श्रमिक-जागरण एक अपराध था। परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार ने सम्मेलन को खुले मैदान में होने से प्रतिबंधित कर दिया। मगर बंद परिसर में बैठक करने की छूट देने की कृपा जरूर की थी।
सरकारी धमकी के बावजूद, रामजस अग्रवाल नेे आयोजन की पूरी जिम्मेवारी ले ली। उन्होंने अपने खदान परिसर में तीन दिवसीय अधिवेशन करवाया, जिसमें लगभग 60 हजार श्रमिकों ने भाग लिया। उनके रहने, भोजन आदि का खर्च अकेले रामजस बाबू ने उठाया। उस अधिवेशन में राष्ट्रीय नेता के रूप में एआइटीयू सी के संस्थापक द्वय एनएम जोशी, बैरिस्टर जोसेफ बैपटिस्टा (बंबई), दीवान चमनलाल, दीपनारायण सिंह आदि ने भाग लिया था। राष्ट्रीय श्रमिक नेताओं में सुरेन्द्रनाथ हाल्दार, जेएम सेनगुप्ता, बैरिटर इन्दुभूषण सेन आदि ने भी अधिवेशन में अपनी गरिमामयी उपस्थिति से मजदूरों में जोश भरा था।
झरिया में आयोजित इस सम्मेलन की शोहरत पूरे देश में फैल गयी। डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने भी कांग्रेस के एक अधिवेशन में इसका अलग से न केवल उल्लेख किया, बल्कि कोयला क्षेत्र के मजदूरों का एक सशक्त संगठन बनाने का भी आह्वान किया। झरिया के कोयला क्षेत्र के मजदूरों का संगठन करने के लिए स्वामी विश्वानंद और पीसी बोस के अतिरिक्त और दो युवा नेता उभरकर आए - वे थे शिवकाली बोस और सत्यविमल सेन। इस क्षेत्र की महत्ता तो इसी बात से समझी जाती है कि बाद में नेताजी सुभाषचंद्र बोस, प्रो. अब्दुल बारी, माइकल जॉन सरीखे श्रमिक नेताओं ने भी अहम भागीदारी निभाई।