Hool Revolution Day 2020: कोरोना ने मुख्यमंत्री को धर्मसंकट से बचाया, डीसी ने सिदो-कान्हू की प्रतिमा पर नवाया शीश
कोरोना के कारण प्रशासन ने शहीद सिदो-कान्हू के जनस्थल भोगनाडीह पर सरकारी स्तर पर श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन नहीं हुआ। वैसे सिदो-कान्हू के वंशज की हत्या से राजनीतिक माहाैल गर्म है।
साहिबगंज [ डॉ. प्रणेश ]। दशकों बाद हूल दिवस के माैके पर इस बार संथाल विद्रोह के नायक शहीद सिदो-कान्हू की धरती भोगनाडीह में मेला नहीं लगा। इस वजह से इलाके में सन्नाटा है। प्रत्येक वर्ष कई दिन पूर्व से ही भोगनाडीह के आसापास के इलाकों में इसकी तैयारी शुरू हो जाती थी। उत्सव जैसा माहौल रहता था। दुमका, गोड्डा, जामताड़ा, देवघर, पाकुड़ के साथ-साथ बिहार, पश्चिम बंगाल व ओडिशा से भी लोग आते थे। हजारों की भीड़ उमड़ती थी। पूर्व की भाजपा सरकार के पांच साल के शासन के दौरान तो तीन बार स्वयं मुख्यमंत्री रघुवर दास आए। राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू भी यहां आयीं। पिछले साल 30 जून को राज्य सरकार के प्रतिनिधि के रूप में जल संसाधन मंत्री रामचंद्र सहिस यहां आए थे। नेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन ने भी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण किया था। इस बार मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के आने की उम्मीद थी। वे यहां के स्थानीय (बरहेट विधानसभा) विधायक भी हैं लेकिन कोरोना की वजह से कार्यक्रम रद हो गया।
रामेश्वर मुर्मू को उपायुक्त ने दी श्रद्धांजलि
कोरोना के कारण प्रशासन ने शहीद सिदो-कान्हू के जनस्थल भोगनाडीह पर सरकारी स्तर पर श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन नहीं किया। वैसे सिदो-कान्हू के वंशज रामेश्वर मुर्मू की मौत से राजनीतिक माहाैल गर्म है। सिदो-कान्हू के वंशजों ने इस बार हूल दिवस न मनाने की अपील कर रखी थी। भाजपा भी इस मुद्दे को लेकर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को घेरने में लगी है। ऐसे में यहां बड़ा आयोजन और मुख्यमंत्री के आगमन पर असहज स्थिति उत्पन्न हो सकती थी। लॉकडाउन और कोरोना हवाला देकर प्रशासन ने हूल दिवस पर आयोजन को टाल दिया। इससे झारखंड सरकार, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और जिला प्रशासन-सबका धर्मसंकट टल गया। हूल दिवस पर मंगलवार को साहिबगंज के उपायुक्त वरुण रंजन भोगनाडीह पहुंचे। उन्होंने शहीद पार्क में सिदो, कान्हू, चांद और भैरव की प्रतिमा पर फूल चढ़ाया और शीश नवाया। उपायुक्त सिदो-कान्हू के वंशज दिवंगत रामेश्वर मुर्मू के घर भी गए। उनकी तस्वीर पर फूल रख श्रद्धांजलि दी।
भोगनाडीह को तीर्थस्थल का दर्ज
भोगनाडीह को संतालों के तीर्थस्थल का दर्जा प्राप्त है क्योंकि यहां पैदा हुए सिदो-कान्हू व चांद-भैरव ने अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ 30 जून, 1855 में आंदोलन का बिगुल फूंका था। इन चारों भाइयों ने अंग्रेज शासन की नींव हिला दी थी। 30 जून 1855 को डुगडुगी बजाकर भोगनाडीह में करीब 20 हजार संतालों को एकत्र किया। सभी तीर धनुष व परंपरागत हथियारों से लैश थे। उस सभा में सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासक और भैरव को सेनापति मनोनीत कर नये संताल राज्य के गठन की घोषणा कर दी गयी। इसके बाद अंग्रेजों से संघर्ष तेज हो गया। सैकड़ों अंग्रेजों की हत्या कर दी गयी। संताल परगना के राजभवन पर संतालों ने कब्जा कर लिया। इसके बाद भागलपुर कमिश्नरी के सभी जिलों में मार्शल ला लागू कर दिया गया। बाद में सिदो कान्हू को गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ दिन तक जेल में रखने के बाद दोनों भाइयों को सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गयी। इन चारों भाइयों पर पूरे संताल को गर्व है।
इतिहास में नहीं मिली जगह
इतिहासकारों में हूल आंदोलन को लेकर मतैक्य नहीं है। इस वजह से इसे इतिहास में जो जगह मिलनी चाहिए वह नहीं मिली। कुछ लोग 30 जून 1855 तो कुछ लोग पांच जुलाई 1855 को हूल दिवस मानते हैं। इतिहासकार डॉ. डीएन वर्मा कहते हैं कि वास्तव में हूल की शुरूआत 30 जून को ही हो गई। उसी दिन भोगनाडीह में हजारों संताल जुटे और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की घोषणा की। कोलकाता रिव्यू 1856 के वाल्यूम नंबर 26 के हवाले से वे कहते हैं कि इस पुस्तक में पांच जुलाई 1855 को सिदो द्वारा महेश लाल दत्ता नामक दारोगा की बाबूपुर में हत्या करने का उल्लेख है। वे कहते हैं कि 30 जून को आंदोलनकारी भोगनाडीह में जमा हुए तथा आगे की रणनीति तय करने के बाद वहां से रवाना हुए।
नाै को काटकर हूल हूल का जयघोष किया
बोरियो के दारोगा महेश लाल दत्ता को यह सूचना मिली तो वह उन्हें पकड़ने आया। क्रांतिकारियों ने उसे पकड़ लिया और सिदो के पास ले गए। सिदो ने उसे तलवार से काट दिया। वह शनिवार का दिन था। उसी दिन कान्हू ने मानिक चौधरी नामक एक महाजन को भी तलवार से काट डाला। कुछ नौ लोगों की काटकर हत्या कर दी गई। इस दौरान क्रांतिकारियों ने हूल हूल का जयघोष किया। इसके बाद वे आगे बढ़े। डाॅ. डीएन वर्मा कहते हैं कि कुछ इतिहासकारों ने पंचकठिया को क्रांतिस्थल माना है। डॉ. डीएन वर्मा कहते हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में भले ही संतालों की हार हुई थी लेकिन इस आंदोलन ने एक बड़ी क्रांति की नींव रख दी और करीब 92 साल बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।