थाईलैंड की पंगास ने संवारा धनबाद के मछुआरों का जीवन
मछुआरों की जिंदगी में कामयाबी की यह गाथा थाईलैंड की पंगास नामक मछली ने लिखी है। मछली पालन की केज कल्चर तकनीक ने भी सोने में सुहागा का काम किया है।
बलवंत कुमार, धनबाद: मछुआरों की जिंदगी में अब बदलाव आ रहा है। मछली पालन से मछुआरा समाज गरीबी रेखा से निकलकर अब खुशरंग जिंदगी की ओर कदमताल कर रहा है। मछुआरों की जिंदगी में कामयाबी की यह गाथा थाईलैंड की पंगास नामक मछली ने लिखी है। मछली पालन की केज कल्चर तकनीक ने भी सोने में सुहागा का काम किया है। इस तकनीक से कम समय में ही बेहतर मछली उत्पादन में सफलता मिल रही है। साल में दो बार तक उत्पादन होने से मछुआरों की तकदीर बदल गई है। धनबाद जिला में 18 समितियों की ओर से केज कल्चर के माध्यम से मछली पालन हो रहा है।
मछली उत्पादन बढ़ाकर दूसरे राज्यों पर झारखंड की निर्भरता खत्म करने के लिए वर्ष 2010-11 में केज कल्चर की शुरुआत की गई। राज्य सरकार ने भी मछली पालकों को प्रोत्साहित किया। केज तकनीक को सरकार की ओर से 2.70 लाख रुपये भी उपलब्ध कराए। पालक को केवल 30 हजार रुपये लगाने पड़ते हैं। मछली पालन को अनुदानित दर पर मछलियों का भोजन भी सरकार ही उपलब्ध कराती है।
छह माह में ही तैयार हो जाती पंगास मछली: धनबाद स्थित मैथन डैम में केज कल्चर के तहत पंगास का पालन करने वाले रघुनाथपुर मत्स्यजीवी सहयोग समिति के सचिव और मछली पालक लखींद्र मुर्मू ने बताया कि छह माह में ही पंगास बिक्री योग्य हो जाती है। एक पंगास के पालन पर 45 रुपये खर्च आता है। तैयार होने पर बाजार में यह 120 से 140 रुपये प्रति किलो की दर से बिकती है। एक मछली का वजन करीब एक किलो के ऊपर ही होता है। मुर्मू की समति में करीब 21 लोग हैं। प्रत्येक छह माह में करीब पाच लाख रुपये का कारोबार होता है। इस मछली ने तो हम मछुआरों का जीवन ही बदल दिया है। उन्होंने बताया कि अन्य मछलियों के बढ़ने में आठ माह का समय लगता है। केज कल्चर तकनीक में यह भी लाभ है कि मछलियों को पालन और पकड़ने में अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। नयाटोला लघाटा मत्स्य जीवी सहयोग समिति के अध्यक्ष और पालक गोविंद महतो का कहना है कि देखरेख की परेशानिया तो हैं। बावजूद इस मछली का व्यापार काफी लाभदायक है। धनबाद जिले सबसे पहले केज कल्चर के तहत इस मछली का पालन शुरू किया था। अब 18 समितिया इस काम में लगी हैं।
अभी आत्मनिर्भर नहीं बन सका सूबा: एक रिपोर्ट के मुताबिक, झारखंड की मछली उत्पादन में वार्षिक आवश्यकता 1.56 लाख टन है। लेकिन, वर्तमान में केवल 1.05 लाख टन उत्पादन हो रहा है। यानी राज्य अभी आत्मनिर्भर नहीं बन सका है। पर, मछुआरों में आ रही जागरूकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि जल्द ही राज्य लक्ष्य तक पहुंच जाएगा।
राज्य में प्रति वर्ष मछली उत्पादन
वर्ष - उत्पादन (मीट्रिक टन में)
2004-05 - 22000
2005-06 - 34000
2006-07 - 34027
2007-08 - 67089
2008-09 -75080
2009-10 - 70050
2010-11 - 71089
2011-12 - 91068
2012-13 - 96060
2013-14 - 104082
''इस मछली को पेंजेसियस नाम से भी जाना जाता है। यह कैटफिश परिवार की सदस्य है। मूलरूप से यह वियतनाम, कंबोडिया और थाईलैंड में पाई जाती है। छह माह में यह तैयार हो जाती है। देश में पंगास की लगातार बढ़ रही माग को देख राज्य सरकारों ने इसके उत्पादन पर जोर दिया है।''
-अशोक कुमार, जिला मत्स्य पदाधिकारी, धनबाद