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बिहारी बाबू खामोश... हाथ वाले समझ नहीं पा रहे इस अहसानमंदी का राज Dhanbad News

हाथ वाले झारखंड विधानसभा चुनाव में बिहारी बाबू को हाथों-हाथ ले रहे हैं। वह भी निराश न करते हुए अच्छे दिन वालों के विरोध में 73 की उम्र में भी पसीना बहा रहे हैं।

By MritunjayEdited By: Published: Mon, 09 Dec 2019 07:45 AM (IST)Updated: Mon, 09 Dec 2019 07:45 AM (IST)
बिहारी बाबू खामोश... हाथ वाले समझ नहीं पा रहे इस अहसानमंदी का राज Dhanbad News
बिहारी बाबू खामोश... हाथ वाले समझ नहीं पा रहे इस अहसानमंदी का राज Dhanbad News

धनबाद, जेएनएन। बिहारी बाबू! इनके उपनाम ही काफी है। ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है। अच्छे अच्छों को खामोश करते रहे हैं। लेकिन, इन दिनों अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं। अच्छे दिन वालों से बैर से मोल ले ली है। राजनीतिक लाइन और लेंथ ही बिगड़ गया है। जहां हाथ डाल रहे हैं वहीं गुलगपाड़ा। अपनी पार्टी को छोड़ देश की सबसे पुरानी पार्टी का हाथ पकडऩे के बाद कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। हालांकि अब भी गले हुए हैं। हाथ को मजबूत कर रहे हैं।

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हाथ वाले झारखंड विधानसभा चुनाव में बिहारी बाबू को हाथों-हाथ ले रहे हैं। वह भी निराश न करते हुए अच्छे दिन वालों के विरोध में 73 की उम्र में भी पसीना बहा रहे हैं। हाथ वालों ने टाइगर का शिकार करने के लिए बुलाया तो आ गए। टाइगर को खामोश करने के लिए खूब जोर लगाया। इसके बाद हाथ वालों ने धनबाद और झरिया का मोर्चा संभालने को कहा तो बिहारी बाबू ने हाथ खड़े कर दिए। बिहारी बाबू की यह राजनीति सबसे पुरानी पार्टी वालों को समझ नहीं आ रही है। आखिर उन्होंने प्रचार से हाथ खड़े क्यों कर दिए? अब इतनी सी बात हाथ वालों को नहीं समझ में आ रही तो उनकी राजनीति के भगवान ही मालिक हैं! बिहारी बाबू दोस्ती निभाना भी खूब जानते हैं। यह राज की बात है। आखिर अपने ही भाई के खिलाफ चुनाव प्रचार में वार कैसे करेंगे? मैंशन से भी तो पुराना नाता रहा है। काला पत्थर के जमाने से। खिलाफत करेंगे तो अहसानफरामोश जो कहलाएंगे।

इनकी तो निकल पड़ीः चुनावी राजनीति में ऐसे-ऐसे खेल होते हैं कि अच्छे-अच्छे राजनीतिक पंडित भी नहीं समझ पाते हैं। मतदाताओं से तो उम्मीद करना ही बेमानी कि वह राजनीति के खेल को समझ सके। चुनाव से पहले हैदराबादी बिरयानी का कितना शोर मचा था? इसके  राजनीतिक स्वाद के लिए कितने लोग बेचैन थे? कोयलांचल में तो कुछ ज्यादा ही शोर था। आखिर इसके सदर जो इसी इलाके से आते हैं। खुद वकील साहब की तारीफ में कसीदे पढ़ते-पढ़ते नहीं थक रहे थे। संताल की कई अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में किसी एक से चुनाव लडऩे का एलान कर रखा था। उनके दर पर कोयलांचल से टिकट के दावेदारों की भीड़ लग गई। यह निश्चित जान लीजिए कि हैदराबादी बिरयानी के स्वाद की चाहत रखने वाले चुनाव लड़ते तो कई विधानसभा सीटों का समीकरण बन-बिगड़ सकता था। सो, मोल भाव शुरू हो गई। सदर ने न खुद चुनाव लड़ा और न बहुतों की तैयारी के बावजूद लडऩे दिया। कहीं हराने के लिए कैंडिडेट न दिए गए तो कहीं जिताने के लिए दिए गए। चुनाव जीत कर माल बनाने वालों से ज्यादा ऐसे ही बना लिए गए।

बढ़ गई फूफा-मामा की तादादः सिर्फ शादी-विवाह के दौरान रूठने-मनाने का खेल नहीं चलता। जैसे शादी-विवाह में फूफा-मामा वगैरह-वगैरह रूठते रहते हैं वैसे ही इन दिनों चुनावी फूफा-मामा की तादाद में भी काफी इजाफा हुआ है। हर विधानसभा क्षेत्र में रूठे फूफा-मामा से सामना करना पड़ रहा है। वैसे, कमल पार्टी में कुछ ज्यादा ही रूठने-मनाने का खेल चल रहा है। इनमें सबसे ज्यादा भाईजी के प्रिय पात्र फूफा-मामा बन बैठे हैं। ये लोकसभा चुनाव में जितने सक्रिय थे विधानसभा चुनाव में उतने ही निष्क्रिय हैं। मुंह फूला कर बैठे हैं। इनकी शिकायत कैसी-कैसी है पूछिए मत। सबसे ज्यादा शिकायत है कि इन्हें कोई पूछ नहीं रहा है। हालांकि किस तरह पूछा जाय यह नहीं बताते। बताने की जरूरत नहीं है कि पूछने का मतलब विटामिन एम से है।


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