बंगाल की कला से संवरती हैं मां दुर्गा
मा दुर्गा की प्रतिमा गढ़ने में नडिया जिले के कृष्णनगर व वीरभूम के मूर्तिकारों की अलग पहचान है।
धनबाद, शशिभूषण। हर वर्ष कोयलांचल की दुर्गा पूजा में कला और कारीगरी के नए रचनात्मक पहलू देखने को मिलते हैं। मा दुर्गा की प्रतिमा, भव्य पंडाल और आकर्षक साज-सज्जा को अंजाम देते हैं पश्चिम बंगाल के कारीगर। सैकड़ों की संख्या में ऐसे कारीगर हैं जिनके परिवार दुर्गा पूजा के दौरान हुई कमाई से ही चलते हैं। कोयलांचल के झारखंड मैदान में काम करने पहुंचे मेदनीपुर के मुख्य कलाकार बबलू ने बताते हैं कि कई राज्यों में बंगाल के कुछ खास इलाकों के कारीगरों की मांग है। ये इलाके इन कारीगरों-मूर्तिकारों की कला की वजह से मशहूर हो गए हैं।
कृष्णनगर व वीरभूम मूर्तिकला के लिए चर्चित: मा दुर्गा की प्रतिमा गढ़ने में नडिया जिले के कृष्णनगर व वीरभूम के मूर्तिकारों की अलग पहचान है। कृष्णनगर के पाल परिवार को मूर्तिकला में विशिष्टता हासिल है। जबकि वीरभूम के सूत्रधार परिवार की खास पहचान है। इन परिवारों के सदस्य दुर्गा पूजा ही नहीं बल्कि सरस्वती पूजा, जगधात्री पूजा, काली पूजा के मौके पर देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर मूर्तियां गढ़ते हैं। समय और जरूरत को देखते हुए बड़ी संख्या में इन परिवारों के सदस्य अन्य शहरों में बस गए हैं, लेकिन पुश्तैनी व्यवसाय नहीं छोड़ा। इनकी विशेषता यह है कि ये परंपरागत मूर्तिकला को अपनाए हुए हैं और आधुनिक प्रयोगों से बचते हैं।
मेदनीपुर के कारीगरों ने बनाई नई पहचान: दुर्गा पूजा में अब कपड़े से बने पंडालों का प्रचलन धीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा है। हाल के वर्षो में थीम आधारित रचना का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। इसमें मेदनीपुर के कारीगरों को महारत हासिल है। बंगाल, झारखंड व बिहार में इन कारीगरों की डिमांड काफी बढ़ गई है। मेदनीपुर के कलाकारों का आलम यह है कि 80 प्रतिशत पंडालों का काम इन्हीं को मिलता है। चंदन नगर की लाइट से पंडाल होते रोशन: ज्यादातर आकर्षक जगमगाते पूजा पंडालों में पश्चिम बंगाल के हुगली जिला स्थित चंदन नगर की लाइटिंग ही होती है। यह कभी फ्रेंच कॉलोनी हुआ करती थी। आजादी के दो वर्ष बाद 15 अगस्त 1949 में यह भारत सरकार के अधीन आई। यहा आज भी लाइटिंग का काम कुटीर उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है। यही यहां के कारीगरों का आजीविका का साधन है। गंगा किनारे बसे चंदननगर में लाइटिंग में नए प्रयोग का पहला प्रदर्शन जगधात्री की पूजा में होता है। इसके बाद ही इसे कोलकाता व अन्य शहरों में आजमाया जाता है। बजती है बांकुड़ा व मिदनापुर की ढाकी: दुर्गा पूजा में पंचमी तिथि से प्रतिमा विसर्जन तक ढाक बजाने की परंपरा है। इसे बजानेवाले ढाकी मूलत गरीब किसान होते हैं। बांकुड़ा, मिनदापुर, हुगली, वीरभूम व वर्दमान से ढाकी पूजा के दौरान कई राज्यों में जाते हैं। बरसात में धान रोपाई के बाद इनकी रिहर्सल शुरू हो जाती है। रथयात्रा के दिन ये ढाक ट्यून लेते हैं। मान्यता है कि मां दुर्गा ढाक की आवाज से प्रसन्न होती हैं और अशुभता दूर होती है। प्रतिमा विसर्जन के बाद ये ढाकी घर-घर जाकर ढाक बजाते हैं और लोग सामर्थ्य के मुताबिक पैसे, मिठाई और कपड़ों से उनकी विदाई करते हैं।
पंडाल के लिए काथी के कारीगर: दुर्गा पूजा का भव्य पंडाल बनाते हैं पश्चिम बंगाल के काथी या दक्षिण 24 परगना के कारीगर। इनके अलावा हावड़ा और हुगली के कारीगरों की भी खासी माग है। इनकी खासियत यह है कि ये पंडाल का ढाचा काफी जल्द तैयार कर लेते हैं। नए प्रयोग करने में माहिर होने के कारण इनकी माग है। वीरभूम का डाकेर साज: मा दुर्गा की पारंपरिक प्रतिमा के लिए डाकेर साज का इस्तेमाल होता है। दुर्गाबाटी, हिनू बंगाली मंडप, हरिमति मंदिर आदि में डाकेर साज प्रतिमा के ही दर्शन होते हैं। यहां मुख्यत: सोला और जड़ी का काम होता है, जो वीरभूम के कारीगर करते हैं। सोला व जड़ी से मा का मुकुट, चादमाला व गहने तैयार होते हैं।