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Hool Revolution Day 2020: आजादी की पहली लड़ाई से पहले ही सिदो-कान्हू ने फूंका था अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल

Hool Revolution Day हूल विद्रोह से पहले आदिवासी दामन ए कोह नामक क्षेत्र में निवास करते थे। जहां इनकी अपनी व्यवस्था थी।शांति और सद्भाव से जी रहे संतालियों का अपना राजनीतिक ढांचा था।

By MritunjayEdited By: Published: Tue, 30 Jun 2020 09:31 AM (IST)Updated: Tue, 30 Jun 2020 09:31 AM (IST)
Hool Revolution Day 2020: आजादी की पहली लड़ाई से पहले ही सिदो-कान्हू ने फूंका था अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल
Hool Revolution Day 2020: आजादी की पहली लड़ाई से पहले ही सिदो-कान्हू ने फूंका था अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल

गोड्डा [ विधु विनोद ]। 1857 की लड़ाई को भले आजादी की पहली लड़ाई मानी जाती है, लेकिन झारखंड के सिदो-कान्हू, चांद भैरव सहित अन्य वीर सपूतों ने अंग्रेजों के खिलाफ 1855 में ही विद्रोह का झंडा बुलंद किया था। इस लड़ाई के महानायक आज भी झारखंड के आवाम के लिए पूजनीय है। इस आंदोलन का परिणाम है एसपीटी (संताल काश्तकारी अधिनियम) एक्ट। इस विरोध को अंग्रेजों ने 1856 को बलात पूर्वक दमन किया। भागलपुर से लेकर राजमहल की पहाडिय़ां इसका केंद्र रहा। जहां क्रांति की गूंज गूंजती थी। जमींदारी व्यवस्था, साहूकारों और महाजनों के शोषण व अत्याचार के खिलाफ यह लंबी लड़ाई थी। इतिहास में 30 जून, 1855 हूल विद्रोह ( Hool Revolution) के नाम से दर्ज है। झारखंड हूल आंदोलन के वीर शहीदों की याद में आज (मंगलवार, 30 जून) हूल दिवस मना रहा है। 

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दामन ए कोह में आदिवासियों की थी व्यवस्था 

हूल विद्रोह से पहले आदिवासी दामन ए कोह नामक क्षेत्र में निवास करते थे। जहां इनकी अपनी व्यवस्था थी। शांति और सद्भाव से जी रहे संतालियों का अपना राजनीतिक ढांचा था। परहा पंचायत के प्रतिनिधियों यहां शासन था। जहां सरदार हमेशा अपने आवाम के हितों की रक्षा करते थे। राजस्व वसूली का भार भी गांव के लोगों पर निर्भर था, जिसके बल पर राजकोष भरापूरा रहता था। ये लोग अपने धार्मिक अनुष्ठान को संपन्न कराने के लिए अपने बीच के ही लोगों को चयन करते थे। जिसे पुरोहित या पाहन कहा जाता था। इनकी समृद्ध शासन व्यवस्था अंग्रेजों को खटकती थी। जिसके बाद उनके शोषण व अत्याचार के खिलाफ लोग एकजुट हुए और विद्रोह प्रारंभ हुआ। हालांकि, इसके पूर्व अंग्रेजों व संतालों के बीच चल रही रस्साकसी के बीच ग्राम प्रधान को मान्यता दी गयी थी। सिदो-कान्हू के संघर्ष की प्रशंसा करते हुए कवि गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी पुस्तक में इसका जिक्र किया है। 

 

विद्रोह के तात्कालिक कारण

अंग्रेजों की जमींदारी व्यवस्था, संताल परगरना क्षेत्र में अंग्रेजों का आगमन, भू राजस्व की ऊंची दर, जमीन हड़पना, साहूकारों का अत्याचार, भागलपुर से बद्र्धमान के बीच रेल परियोजना में संतालों से बेगारी करवाना आदि इस विद्रोह के तात्कालिक कारण थे। जिसके खिलाफ 30 जून 1855 को भगनाडीह में संतालों ने विद्रोह का निर्णय लिया। 

विद्रोह के स्वरूप

जानकार बताते हैं कि निर्णय के बाद संतालों ने महाजनों व जमींदारों पर हमला किया था। इस दौरान साहूकारों के मकानों में रखे गए दस्तावेजों को जला दिया गया था जो गुलामी के प्रतीक थे। पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन और डाक ढोने वाली गाडिय़ों को निशाना बनाया गया। रेलवे काम में जुटे इंजीनियर को बंगलों को आग के हवाले किया गया। बड़े जमींदार जो उन दिनों अंग्रेजों के दलाल हुआ करते थे। उनकी फसलें काट ली गई। संताल के इस विद्रोह में करीब 60,000 से ज्यादा लोगों एकजुट थे। जिन्होंने परंपरागत हथियार उठाया था। 

विद्रोह का दमन

इस संगठित विद्रोह को कुचलने के लिए फिरंगी सेनाओं का सहारा लिया गया। मेजर जनरल बरो के नेतृत्व में सेना की टुकडियां संताल परगरना भेजी गई। उपद्रव ग्रस्त क्षेत्र में मार्शल लॉ लागू किया गया। विद्रोही नेताओं की गिरफ्तारी के लिए इनामों की घोषणा की गयी। लगभग 15000 संताल विद्रोही मारे गए। विद्रोह के नायक सिदो और कान्हू को पकड़ लिया गया। 


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