लहठी की खनक से आएगी चमक
बाबानगरी के प्रसाद में शामिल केवल पेड़ा ही नहीं लहठी चूड़ी सिदूर की भी खूब डिमांड होता है।
देवघर : बाबानगरी के प्रसाद में शामिल केवल पेड़ा ही नहीं लहठी, चूड़ी, सिदूर की भी खूब डिमांड होता है। यह अलग बात है कि यहां के व्यवसायी खोआ के लिए बंगाल, उत्तर प्रदेश व राजस्थान पर तो चूड़ियों के लिए फिरोजाबाद, जयपुर, जोधपुर, इंदौर, अहमदाबाद व कोलकाता के बाजार निर्भर हैं। लेकिन लाह उत्पादन में अव्वल झारखंड में लाह से बनने वाली लहठी भी मुकम्मल बाजार के लिए तरस रहा है। देवघर में लाह से लहठी चूड़ियां तो तैयार होती हैं लेकिन दायरा बिल्कुल सिकुड़ा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक देवघर में तकरीबन 300 से 500 कारीगर लहठी निर्माण में लगे हैं लेकिन न तो इनकी अपनी पहचान बन पाई है और ना ही इनके रहन-सहन में कोई बदलाव। पेड़ा व्यवसाय भी इस इलाके में तभी वृहत स्वरूप ले सकता है जब इस इलाके में श्वेत क्रांति की बुनियाद मजबूत और सहकारिता इसके लिए संबल बने। स्थानीय स्तर पर दूध उत्पादन से न सिर्फ स्वरोजगार का फलक बड़ा होगा बल्कि बाहर से आने वाले सिथेटिक और चलानी खोआ के आयात से निजात मिल सकेगा। ऐसा होने मात्र से पेड़ा की गुणवत्ता और ब्रांड पर भी बट्टा नहीं लगेगा।
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प्रसाद के कुटीर से वृहत होने के बीच ये है खुरपेंच
- औद्योगिक इकाइयों के विकास में समन्वित प्रयासों की कमी।
- निपुण मानव संसाधन की कमी।
- स्थानीय स्तर पर कच्चा माल की उपलब्धता और रखने की मुकम्मल व्यवस्था नहीं।
- गुडविल और मार्केटिग का बड़ा सवाल।
- बाहरी सामग्रियों पर अत्यधिक निर्भरता।
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अवसर व माहौल बने तो बदल सकती तस्वीर : संताल परगना के सभी छह जिलों (देवघर, जामताड़ा, दुमका, गोड्डा, पाकुड़ और साहिबगंज) का जलवायु व भौगोलिक परिस्थितियां लाह उत्पादन के लिए मुफीद है। इस इलाके में पलास, बेर के पौधे बहुतायत हैं। कुसुम भी इस इलाके में उगता है जिस पर व्यवसायिक तरीके से लाह का उत्पादन किया जा सकता है। फिलहाल जामताड़ा, दुमका व इसके आसपास के कुछ इलाकों में लाह की छिटपुट खेती होती है। कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर लाह उत्पादन के लिए नेचरल फार्मिंग की शुरुआत हो तो इस इलाके की तस्वीर बदल सकती है।
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वर्जन
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देवघर समेत पूरे संताल परगना में इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम का फॉर्मूला आत्मनिर्भरता का सबसे बड़ा हथियार बन सकता है। इस इलाके में श्वेत क्रांति से सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में बड़ा परिवर्तन संभव है। इसके जरिए यहां औद्योगिक विकास का भी मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
डॉ. पूनम सोरेन, पशु कृषि वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान केंद्र, देवघर। देवघर में करीब ढाई दशक से पेड़ा व्यवसाय कर रहा हूं। सबसे फिक्र ब्रांड की विश्वसनीयता की है। दीर्घ समय तक पेड़ा व खोआ के रखरखाव की भी कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार को इस ओर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। स्थानीय कारीगर और मजदूरों की सहज उपलब्धता भी बड़ी चुनौती है।
चतुरानंद मिश्र, पेड़ा व्यवसायी, देवघर। तीन दशक से चूड़ी का धंधा कर रहा हूं। चूड़ियां बाहर से मंगाकर ही धंधा चल रहा है। देवघर में चूड़ी निर्माण नहीं होने के पीछे यहां की जलवायु के साथ माहौल का नहीं होना बड़ा कारण है। कच्चा माल की अनुपलब्धता भी इसमें शामिल है। इस इलाके में लाह से लहठी तैयार कर बड़ा अवसर सृजित किया जा सकता है। इससे यहां के किसान, मजदूर, कारीगर और व्यवसायी सब आत्मनिर्भर बन सकते हैं।
संजय मिश्र, चूड़ी व्यवसायी, देवघर। संतालपरगना के सभी छह जिलों में पलास और बेर के पौधे बहुतायत है। इस इलाके में लाह की खेती कर आत्मनिर्भरता की राह प्रशस्त की जा सकती है। लाह से सिर्फ लहठी और चूड़ी ही नहीं बल्कि पेंट व रंग उद्योग को भी बढ़ावा दिया जा सकता है।
सुधीर कुमार सिंह, सहायक उद्योग निदेशक, संताल परगना प्रमंडल।