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Durgapuja: 350 साल पहले कोलबेंदी में शुरु हुई थी 16 दिनों की दुर्गापूजा, पढ़िये कैसे निभाई जा रही आज भी पूरी परंपरा

Durgapuja राज पुरोहित व पुजारी ने यजमानों की उपस्थिति में बुधन कलश स्थापित कर सिंह देव परिवार की आराध्य देवी मां दुर्गा की आराधना शुरू हो जाती है। कलश स्थापना के समय बकरे की बलि भी चढाई जाती है।

By Deo Kant TiwariEdited By: Vinay Kumar TiwariPublished: Mon, 03 Oct 2022 07:09 PM (IST)Updated: Mon, 03 Oct 2022 07:11 PM (IST)
Durgapuja: 350 साल पहले कोलबेंदी में शुरु हुई थी 16 दिनों की दुर्गापूजा, पढ़िये कैसे निभाई जा रही आज भी पूरी परंपरा
Durgapuja: दुर्गापूजा : 350 वर्षों से कोलबेंदी में 16 दिनों का दशहरा

बोकारो, जागरण संवाददाता। चास प्रखंड के कोलबेंदी गांव में 16 दिवसीय दुर्गापूजा की चर्चा चारों ओर होती है। करीब 350 साल पहले से जमींदार ठाकुर किशन देव ने मंदिर की स्थापना कर पूजा शुरू कराई थी। तब से यह परंपरा चली आ रही है। जिउतिया पर्व के पारण के दिन से पूरे विधि-विधान के साथ बुधन कलश का स्थापना के साथ दुर्गापूजा प्रारंभ हो जाती है।

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राज पुरोहित व पुजारी ने यजमानों की उपस्थिति में बुधन कलश स्थापित कर सिंह देव परिवार की आराध्य देवी मां दुर्गा की आराधना शुरू हो जाती है। कलश स्थापना के समय बकरे की बलि भी चढाई जाती है। पूरे झारखंड राज्य में कोलबेंदी ही एक ऐसा गांव हैं, जहां दशहरा 16 दिनों तक मनाते हुए मां दुर्गा की पूजा की जाती है।

कोलबेंदी के दुर्गा मंदिर में बुधन कलश स्थापना के बाद पंचमी को एक और कलश की स्थापना होती है। जबकि महासप्तमी को क्षत्रिय कुल के सिंह देव परिवार के पुरुष वर्ग अपने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र लेकर गाजे-बाजे के साथ निकटतम जलाशय इजरी नदी आराध्य देवी मां दुर्गा को नवपत्रिका के रूप में पालकी से लाकर मंदिर में स्थापना कर मां दुर्गा की प्रतिमा पूजन प्रारंभ करते हैं।

महाष्टमी को होता शस्त्र पूजन

यहां बुधन कलश की स्थापना से शुरू दुर्गा पूजा महादशमी को कलश व प्रतिमा विसर्जन के साथ समापन होगा। शक्ति की देवी, मां दुर्गा की पूजन, हवन, महाआरती के साथ-साथ पंचमी से लेकर नवमी तक बकरे की बलि भी चढ़ाने की परंपरा चली आ रही हैं। आस्था यह हैं कि महाअष्टमी के दिन निर्जला उपवास रहकर आसपास के श्रद्धालु जिनके मनोकामनाएं पूरी होती हैं। श्रद्धालु जलाशय से मंदिर तक दंडवत करते पहुंचते हैं।

इसी दिन सिंह देव परिवार अपने अस्त्र-शस्त्र की पूजन करते हैं। दशमी को महिलाएं मां दुर्गा को चुमावन व खोईछा भराई कर पुन: आने की प्रार्थना कर नम आंखों से विदाई देती हैं। इस पूजा में सिंह देव के सदस्य अपनी नौकरी पेशा, कारोबार छोड़ घर पहुंचते हैं व विजया मिलन में सम्मिलित होते हैं।

दुर्गा मंदिर आस्था का केंद्र

ग्रामीण इलाकों में यह मंदिर आस्था का केंद्र हैं। विजयादशमी के दिन यहां लगने वाले मेला में हजारों की भीड़ होती हैं। नवमी के दिन बलिदान देखने को आसपास के दर्जनों गांव के लोग उमड़ पड़ते हैं। कोरोना के दो साल बाद इसबार श्रद्धालुओं मां दुर्गा की दर्शन खुलकर कर रहे हैं।

खास यह है कि इस प्राचीन मंदिर में एक ही पटरा पर दस देवी-देवताओं की मूर्ति स्थापित की जाती है। इनमें आराध्य की देवी मां दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, कार्तिक, जया, विजया, महिषासुर के साथ-साथ देव देवी की वाहनों की मूर्ति होती है। माना जाता हैं कि यहां जो भी सच्चें मन से मन्नत मांगते हैं, वह जरूर पूरी होती हैं।

पुश्तैनी परंपरा का निर्वहन

वर्षों पूर्व ठाकुर किशन देव की स्थापित परंपरा को उनके वंशज आज भी निर्वहन करते आ रहे हैं। इसमें अधिवक्ता दुर्गा प्रसाद सिंह देव, प्रताप सिंह देव, जन्मेजय सिंह देव, विजय सिंह देव, राजेंद्र नारायण देव, नंदकिशोर देव, जगन्नाथ देव, प्रदीप देव, अशोक सिंह देव समेत अन्य सदस्य शामिल हैं।


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