जम्मू-कश्मीर में नजीर की शहादत बन गई ‘नजीर’
Tribute to Nazir Ahmad Wani. नजीर अहमद वानी ने शहादत देकर इन्हीं जिहादियों से कश्मीरियों को आजाद कराने के लिए नजीर पेश की है।
श्रीनगर, राज्य ब्यूरो। आतंकियों का गढ़ कहलाने वाले कुलगाम के अशमुजी गांव का माहौल सोमवार को पूरी तरह बदला हुआ था। पूरे गांव में विरानी से छाई हुई थी। सभी दुकानें बंद थी, नजर आ रहे थे, लेकिन किसी को चेहरे पर खुशी का भाव नहीं था। सभी एक ही तरफ जा रहे थे अपने गांव के शूरवीर लांस नायक नजीर अहमद वानी को श्रद्धांजलि अर्पित करउसे सुपु़र्दे खाक करने। नजीर गत रविवार को शोपियां में छह नामी जिहादियों को मार गिराते शहीद हो गया था।
कुलगाम में किसी सैन्यकर्मी के जनाजे में लोगों की भीड़ अपने आप में अनोखी बात मानी जाती है। नजीर की शहादत के बाद से जिस तरह से लोग वहां जमा हुए, वह बता रहे थे कि जिस मकसद के लिए नजीर ने सीने पर गोली खाई, वह उनके लिए कितना अहम है। सोमवार सुबह बादामी बाग सैन्य छावनी में सेना द्वारा आयोजित श्रद्धांजलि समारोह के बाद शहीद का तिरंगे में लिपटा पार्थिव शरीर जब उसके घर पहुंचा तो शहीद के अंतिम दीदार के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा।
वहां मौजूद शौकत अहमद नामक एक ग्रामीण ने कहा कि नजीर अहमद की शहादत हम सभी के लिए एक नजीर है, उसने कश्मीर और हम कश्मीरियों की जिंदगी को जिहादियों और उनके एजेंटों की गुलामी से आजाद कराने के लिए शहादत दी है। वह शुरू से ही इन जिहादियों की असलियत समझता था, तभी तो वह पहले इख्वान के साथ मिलकर इनके खिलाफ लड़ा। उसके जज्बे को देखते हुए ही उसे सेना में भर्ती किया गया था।
शहीद के परिवार में उसकी पत्नी जबीना व दो बच्चों के अलावा उसके मां-बाप रह गए हैं। शहीद के पार्थिव शरीर के पास खड़े उसके पुत्र की तरफ संकेत करते हुए एक अन्य ग्रामीण ने कहा कि वह उसे एक फौजी अफसर बनाना चाहता था। लेकिन वह अपने इस सपने को पूरा नहीं कर सका।
सेना के एक अधिकारी ने जो शहीद नजीर का पार्थिव शरीर लेकर उसके घर पहुंचे थे, उन्होंने कहा कि वह बहुत बहादुर था। वह सेना की 162 टेरीटोरियल आर्मी में तैनात था, लेकिन उसने प्रतिनियुक्ति पर आरआर में आना बेहतर समझा। वह वर्ष 2004 में सेना में भर्ती हुआ था। वर्ष 2007 में उसे उसकी वीरता और राष्ट्रभक्ति के लिए सेना मेडल प्रदान किया गया था। इस साल भी उसे दोबारा सेना मेडल प्रदान किए जाने की सिफारिश की गई। वह बहादुरी की मिसाल था। शायद ही कोई ऐसा अभियान होता था, जिसमें वह शामिल न हुआ हो। उसने कई नामी आतंकियों को मार गिराने में अहम भूमिका अदा की है।
घर में आवश्यक मजहबी रस्मों को पूरा करने के बाद शहीद का पार्थिव शरीर निकटवर्ती कब्रिस्तान में ले जाया गया, जहां सिर्फ उसके गांव के ही नहीं आस पास के गांवों के लोग भी आए थे। सैन्य दस्ते ने 21 बंदूकों की सलामी दी और उसके बाद उसके पार्थिव शरीर को सुपुर्दे खाक किया गया। इस मौके पर मौजूद शायद ही कोई ऐसी आंख होगी जो नम न थी। शहीद के जनाजे से लौट रहे एक बुजुर्ग से जब पूछा गया कि यहां तो आतंकियों का बोलबाला है, फौजी के जनाजे में शामिल होने पर आतंकियों की पाबंदी है तो उसने कहा कि कोयमू हमारे गांव से ज्यादा दूर नहीं है, वह जिहादियों का गढ़ है, अासपास के गांवों में भी उनका दबदबा है। उसके बावजूद यहां अगर लोग आए हैं तो उन्हें पता है कि नजीर ने अपनी शहादत देकर इन्हीं जिहादियों से कश्मीरियों को आजाद कराने के लिए नजीर पेश की है।