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शहीदों का वारिस बताने वाले गायब

राज्य ब्यूरो श्रीनगर कश्मीर में सोमवार को मुख्यधारा की सियासत से लेकर अलगाववादी खेमे में खु

By JagranEdited By: Published: Tue, 14 Jul 2020 08:15 AM (IST)Updated: Tue, 14 Jul 2020 08:15 AM (IST)
शहीदों का वारिस बताने वाले गायब
शहीदों का वारिस बताने वाले गायब

राज्य ब्यूरो, श्रीनगर : कश्मीर में सोमवार को मुख्यधारा की सियासत से लेकर अलगाववादी खेमे में खुद को 13 जुलाई 1931 के शहीदों का वारिस करार देने वाले वाले नदारद रहे। इसी दिन डोगरा शासक के खिलाफ हुए विद्रोह में कई लोग मारे गए थे। प्रदेश प्रशासन के आलाधिकारी भी नक्शबंद स्थित मजार-ए-शौहदा में दफन लोगों को श्रद्धांजलि देने नहीं पहुंचे। कोई सरकारी, राजनीतिक या मजहबी समारोह नहीं हुआ। अलगाववादी खेमे की बंद का आह्वान भी पूरी तरह नाकाम रहा।

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नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, कांग्रेस, माकपा समेत मुख्यधारा की सियासत से जुड़े संगठनों का एक भी नेता मजार पर नहीं आया। हुर्रियत कांफ्रेंस समेत अलगाववादी खेमे के किसी भी दल का कोई नेता या कार्यकर्ता नहीं दिखा। हालांकि प्रशासनिक पाबंदियां थीं, लेकिन वह कोविड-19 के कारण थी। पांच अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम लागू होने के साथ प्रदेश में संवैधानिक, राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था भी बदल गई। जम्मू कश्मीर में राजकीय अवकाश सूची से 13 जुलाई गायब हो गया।

नेशनल कांफ्रेंस के एक नेता के मुताबिक, उन्होंने श्रद्धांजलि समारोह के लिए जिला प्रशासन से अनुमति मांगी थी। पार्टी अध्यक्ष डॉ. फारूक अब्दुल्ला व उमर अब्दुल्ला को कुछ साथियों संग वहां जाना था, लेकिन अनुमति नहीं मिली। नेकां अध्यक्ष डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि 13 जुलाई 1931 को ही जम्मू कश्मीर में राजशाही के खिलाफ सही मायनों में आंदोलन शुरू हुआ था।

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने कहा है कि 13 जुलाई 1931 के शहीदों को नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने जम्मू कश्मीर के लोगों को राजशाही के खिलाफ नया रास्ता दिखाया था।

उदारवादी हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज मौलवी उमर फारूक ने कहा कि कोविड-19 के कारण ही हमने इस बार आज के दिन कोई रैली या जलसा आयोजित नहीं किया है।

कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ डॉ. अजय चुरुंगु ने कहा कि 13 जुलाई 1931 के घटनाक्रम का निष्पक्ष तरीके से अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि वह आम लोगों या राजशाही के खिलाफ आवाज उठाने के लिए शहीद नहीं हुए थे। वह इस्लाम के नाम पर सत्ता उखाड़ना चाहते थे। जम्मू कश्मीर में सबसे पहले 13 जुलाई 1931 को ही सांप्रदायिक दंगे हुए थे। कश्मीर के कई बुद्धिजीवी भी यही कहते हैं। पुराने दस्तावेज भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। यह जम्मू कश्मीर के इतिहास का काला दिन है।

कश्मीर में महाराजा के खिलाफ उतर आए थे लोग

13 जुलाई 1931 में कुरान की कथित अवमानना को लेकर कश्मीर में महाराजा हरि सिंह के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए थे। हालात पर काबू पाने के लिए महाराजा के सिपाहियों को गोली चलानी पड़ी, जिसमें 22 लोग मारे गए थे। यह घटना श्रीनगर स्थित सेंट्रल जेल में हुई थी। मरने वालों को नक्शबंद साहब की जियारत परिसर में दफनाया गया था। जम्मू कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने 13 जुलाई 1931 के शहीदों को 1948 में राज्य का शहीद घोषित कर दिया था। इसके साथ ही 13 जुलाई को राजपत्रित अवकाश भी घोषित कर दिया गया।


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