लेफ्टिनेंट जनरल ढिल्लों के तीेखे सवाल, निर्दोषों की हत्या पर कश्मीरी बहुसंख्यक आबादी चुप क्यों
कश्मीर में हुई नागरिक हत्याओं में मानवाधिकारों के कथित झडाबरदारों स्थानीय व राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया घरानों की चुप्पी की निंदा की। उन्होंने कहा कि जब कभी किसी सुरक्षाकर्मी से गलती हो जाती है तो यह लोग बहुत हंगामा करते हैं लेकिन आतंकियों द्वारा मानवाधिकारों के हनन पर चुप रहते हैं।
राज्य ब्यूरो, श्रीनगर: कश्मीर में आतंकियों द्वारा नागरिक हत्याओं की बढ़ती घटनाओं पर रोष जताते हुए लेफ्टिनेंट जनरल केजेएस ढिल्लों ने बुधवार को कहा कि आखिर क्या बात है कि कश्मीर की चुप रहने वाली बहुसंख्यक आबादी आज इन हत्याओं पर चुप हैं। वह क्यों नहीं आतंकी घटनाओं की खुलकर निंदा करती। सिर्फ कुछ खास ही घटनाओं की निंदा क्यों? क्या कश्मीरियों को भी पाकी कहलाना है, विदेशों में तो पाकी शब्द एक गाली की तरह इस्तेमाल होता है। बादामी बाग स्थित सैन्य छावनी में बुधवार को सेना की 15वीं कोर द्वारा आयोजित सेमिनार 'आतंकियों द्वारा मानवाधिकारों का हनन व बीते 30 साल से कश्मीरियों पर इसका प्रभाव' में लेफ्टिनेंट जनरल ने कई तीखे सवाल उठाए। ढिल्लों सेना की 15वीं कोर के कमाडर रह चुके हैं और राजपूताना रेजिमेंट के कर्नल भी हैं। उन्होंने हाल ही में कश्मीर में हुई नागरिक हत्याओं में मानवाधिकारों के कथित झडाबरदारों, स्थानीय व राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया घरानों की चुप्पी की निंदा की। उन्होंने कहा कि जब कभी किसी सुरक्षाकर्मी से गलती हो जाती है तो यह लोग बहुत हंगामा करते हैं, लेकिन आतंकियों द्वारा मानवाधिकारों के हनन पर चुप रहते हैं। इन्हें आतंकियों के खिलाफ आवाज उठानी होगी। उन्होंने कहा कि आखिर क्या वजह है कि कश्मीर साइलेंट मैजारिटी (शात बहुसंख्यक आबादी) अब शात है। उन्होंने कहा कि आतंक ने कश्मीर को तबाह कर दिया है। आम कश्मीरी ही सबसे अधिक आतंक की मार झेल रहा है। सेना में अपने शुरुआती कैरियर का जिक्र करते हुए लेफ्टिनेंट जनरल बताया कि जनवरी 1990 के दौरान मैं बारामुला में बतौर कैप्टन तैनात था। मैंने देखा है कि 19 जनवरी, 1990 को क्या हुआ था। आज 31 साल बीत गए हैं। उन्होंने कहा कि जब कश्मीरी पंडित कश्मीर से गए तो कश्मीर की आत्मा का एक हिस्सा भी उनके साथ चला गया। कश्मरी पंडितों कश्मीर में शिक्षा व्यवस्था का एक बड़ा आधार माना जाता था। उनके पलायन से कश्मीर की शिक्षा व्यवस्था बर्बाद हुई, यहा की आने वाली नस्लों का भविष्य बर्बाद हुआ। 1990 में आतंककी शुरुआत की मार सबसे पहले स्कूलों पर पड़ी। उन्हें जलाया गया, क्योंकि जो लोग यह सब कर रहे थे नहीं चाहते थे कि कश्मीरी समाज में शिक्षा का प्रसार हो, वह कश्मीर की आत्मा को, कश्मीरियत को पूरी तरह से मटियामेट कर देना चाहते थे। बच्चों पर आतंक की सबसे बड़ी मार
सैन्य अधिकारी ने कहा कि आतंक ने कश्मीरी अभिभावकों, बच्चों और नौजवानों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। बुनियादी ढाचा भी प्रभावित हुआ। 1990 के दौरान ही भारत में उदार आर्थिक व्यवस्था का दौर शुरू हुआ और उस समय कश्मीर में आतंक ने पाव पसारे। कश्मीर के हाथ से विकास की राह में आगे बढ़ने का एक अवसर निकल गया। उन्होंने कहा कि जम्मू कश्मीर की 62 फीसद आबादी की उम्र 32 साल या इससे कम है, मतलब यही कि यह सभी आतंकी हिंसा के दौर में पैदा हुए हैं और पले बढ़े हैं। हम पर, हमारे समाज की बुनियाद पर हमला हुआ है। पहचान और हक की आवाज उठानी होगी
लेफ्टिनेंट जनरल ने कहा कि आखिर नुकसान किसका हो रहा है? 1990 के बाद यहा जो माहौल बना है, वह एक मा से उसका बच्चा छीन रहा है। उन्होंने कहा कि अगर आतंक यूं ही रहा और लोगों ने हक व सच्चाई के लिए आवाज न उठाई तो समझ लो कि कश्मीरियों की पहचान भी पाकिस्तानियों की तरह एक गाली बनकर रह जाएगी। कश्मीरियों को अपनी परंपरा पहचाननी होगी, पाकिस्तान के दुष्प्रचार से बचना होगा। तभी कश्मीर और कश्मीरियों का भला होगा।