फारूक अब्दुल्ला एंड महबूबा मुफ्ती कंपनी के लिए क्यों राजनीतिक मजबूरी बना पाकिस्तान का नाम लेना, जानिए क्या है इनकी मंशा
अपनी सियासी जमीन को बचाने के लिए प्रयासरत डाॅ फारूक अब्दुल्ला एंड महबूबा मुफ्ती कंपनी अब आटोनामी और सेल्फ रुल को भूल गए हैं। दाेनों अब पाकिस्तान की तर्ज पर कश्मीर काे एक विवाद साबित करने और इसके समाधान में पाकिस्तान की भूमिका का राग अलापने लगे हैं।
श्रीनगर, नवीन नवाज । अपनी सियासी जमीन को बचाने के लिए प्रयासरत डाॅ फारूक अब्दुल्ला एंड महबूबा मुफ्ती कंपनी अब आटोनामी और सेल्फ रुल को भूल गए हैं। दाेनों अब पाकिस्तान की तर्ज पर कश्मीर काे एक विवाद साबित करने और इसके समाधान में पाकिस्तान की भूमिका का राग अलापने लगे हैं। दोनों अब पाकिस्तान समेत सभी संबंधित पक्षों के साथ बातचीत पर जोर देते हुए कह रहे हैं कि कश्मीर मसला हल न हाेने की सूरत में कश्मीर में आतंकवाद बढ़ेगा, दोनों मुल्काें में जंग भी हो सकती है।
महबूबा मुफ्ती बीते कुछ दिनों से लगातार जोर दे रही हैं कि कश्मीर मसला है। इसके हल के लिए पाकिस्तान से बात करना जरूरी है। डाॅ फारूक अब्दुल्ला जाे कभी पाकिस्तान पर एटम बम गिराने की बात करते थे, भी पाकिस्तान के साथ बातचीत पर जोर दे रहे हैं। इनके बयानों से सभी हैरान हैं। ऐसा लगता है कि हुर्रियत कांफ्रेंस का एजेेंडा अब इन्हाेंने अपने हाथ में ले लिया है। बस फर्क इतना है कि यह कश्मीर की आजादी और कश्मीर में जिहाद का जिक्र नहीं कर रहे हैं। इनके लिए पाकिस्तान अब बहुत अहम हो चुका है। इनकी बयानबाजी इनकी सियासी मजबूरी कही जा सकती है क्योंकि कोई राजनीतिक मुद्दा इनक पास नहीं है।
5 अगस्त 2019 से पहले नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ फारूक अब्दुल्ला और नेकां उपाध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला हमेशा कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जम्मू कश्मीर में 1953 से पूर्व की संवैधानिक स्थिति की बहाली जिसे वह ग्रेटर आटाेनामी कहते थे, एकमात्र व्यावहारिक हल बताते थे। पीडीपी की अध्यक्षा व पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती आैर उनके पिता स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद ग्रेटर आटोनामी से थोड़ा आगे बढ़कर कश्मीर में सेल्फ रूल की बात करते थे। सेल्फ रूल के तहत कश्मीर में भारत-पाकिस्तान की साझी मुद्रा के चलन, एलओसी के दोनाें तरफ के नागरिकों की एलओसी के आर-पार निर्विरोध आवाजाही, केंद्रीय कानूनों की जम्मू कश्मीर से वापसी जैसे बिंदु भी शामिल हैं। दोनाें ने कभी भी कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे को पूरी तरह समाप्त करने की कोई बात नहीं की थी।
नेकां और पीडीपी ने हमेशा लाेगों से वोट आटोनामी और सेल्फ रूल के नाम पर मांगे। यह दोनों दल लोगों को यकीन दिलाते थे कि चुनाव बेशक सड़क, बिजली,पानी व स्थानीय प्रशासनिक समस्याआें के समाधान के लिए है। अगर हम सत्ता में आए तो इन मुददों के समाधान के साथ ही अपने राजनीतिक एजेंडे को लागू कराने के लिए भारत सरकार पर जोर देंगे। अलबत्ता, चुनाव जीतने के बाद यह दल कभी इन मुद्दों का जिक्र नहीं करते थे। कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ सलीम रेशी के मुताबिक, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के नेता अच्छी तरह जानते थे कि आम कश्मीरी समझ चुका है कि आटोनामी व सेल्फ रूल नहीं मिलेगा बल्कि उसमे एक आस जगाए रखने के लिए वे इनकी बात करते थे। अगर ऐसा न होता तो वे जब सत्ता में थे तो जरुर अपने राजनीतिक एजेंडों को पूरा करने के लिए कोई कदम उठाते। आम कश्मीरी काे इन मुद्दों से कोई ज्यादा सरोकार न था और न है।
केंद्र सरकार द्वारा 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम लागू किए जाने के बाद जम्मू कश्मीर राज्य दो केंद्र शासित प्रदेशों मं पुनर्गठित हो गया। इसके साथ ही आटोनामी, सेल्फ रूल और कश्मीर के भारत विलय पर सवालिया निशान जैसे सियासी एजेंडे भी समाप्त हो गए। कश्मीर में लाेगों ने इस बदलाव को हाथाें हाथ लिया और बदले हालात में खुद को खड़ा करने के प्रयास में नेकां, पीडीपी ने समान विचाराधारा वाले अन्य दलों के साथ मिलकर पीपुल्स एलांयस फार गुपकार डिक्लेरशन बनाया। इन दलों ने अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए की बहाली, जम्मू कश्मीर में 5 अगस्त 2019 से पहले की संवैधानिक स्थिति को अपना राजनीतिक एजेंडा बनाया। ये सोच रहे थे कि लोग इनका साथ देंगे और इसी उम्मीद में डीडीसी चुनावों में उतरे। डीडीसी चुृनावाें में आम कश्मीरियों ने जता दिया कि वह अाटोनामी और सेल्फ रूल को भूल चुके हैं। उन्हें अनुच्छेद 370 और 35 से भी काेेई मतलब नहीं है। वे सिर्फ एक लाेकतांत्रिक व्यवस्था में विकास और खुशहाली की राह में आगे बढ़ना चाहते हैं।
कश्मीर मामलाें के विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार शब्बीर हुसैन ने कहा डीडीसी चुनावों ने नेकां, पीडीपी और पीपुल्स कांफ्रेंस को उनकी औकात बता दी है। सज्जाद गनी लोन ने सच्चाई स्वीकार कर ली है कि उनकी सियासत अब नेकां और पीडीपी के साथ नहीं चलेगी। इसलिए उन्हाेंने गुपकार गैंग से नाता तोड़ा है। वह अकेले चलेंगे या फिर अपनी पार्टी के साथ मिलकर स्पष्ट एजेंडे के साथ मुख्यधारा की सियासत करेंगे। उन्हें दिल्ली का आदमी कहलाने में भी काेई गुरेज नहीं होगा, क्याेंकि उन्हें पता है कि कश्मीरियों के दिल में अगर रहना है तो इमानदारी के एजेंडे के साथ चलना होगा। चाहे फिर वह दिल्ली का बंदा बनकर रही क्यों न रहना पड़े। नेकां-पीडीपी भी सच समझ चुकी हैं लेकिन उनके पास कश्मीरियों को अपने साथ जोड़ने के लिए कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है।
हुर्रियत इस समय पूरी तरह गुम हो चुकी है। ऐसे हालात में यह दल मानते हैं कि कश्मीर को एक विवाद की तरह प्रचारित कर जहां कश्मीर में एक वर्ग विशेष को अपने साथ जोड़ सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान भी इनका हवाला देते हुए कहेगा कि कश्मीर के दो बड़े राजनीतिक दल भी आज कश्मीर को विवाद करार देते हुए पाकिस्तान के साथ बातचीत की बात करते हैं। एक तरह से यह पाकिस्तान के जरिए भी कश्मीर की सियासत में अपनी महत्ता बनाए रखना चाहते हैं, इसलिए पाकिस्तान के साथ बातचीत पर जोर दे रहे हैं। यह इनकी राजनीतिक मजबूरी है।