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Jammu Kashmir : यह गठजोड़ विचारधारा का नहीं, सहूलियत का

सियासत सिर्फ सहूलियत है। विचारधारा और जनहित सिर्फ निजी हित है। इससे आगे कुछ नहीं। इसे कश्मीर केंद्रित मुख्यधारा के राजनीतक दल सही ठहराते हैं। अगर ऐसा न होता तो पीपुल्स एलांयस फार गुपकार डिक्लेरेशन (पीएजीडी) नहीं होता।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Sun, 25 Oct 2020 10:41 AM (IST)Updated: Sun, 25 Oct 2020 10:41 AM (IST)
Jammu Kashmir : यह गठजोड़ विचारधारा का नहीं, सहूलियत का
कश्मीरियों को सियासत के लिए इस्तेमाल करना इनका शगल रहा है।

श्रीनगर , नवीन नवाज : सियासत सिर्फ सहूलियत है। विचारधारा और जनहित सिर्फ निजी हित है। इससे आगे कुछ नहीं। इसे कश्मीर केंद्रित मुख्यधारा के राजनीतक दल सही ठहराते हैं। अगर ऐसा न होता तो पीपुल्स एलांयस फार गुपकार डिक्लेरेशन (पीएजीडी) नहीं होता। डॉ. फारूक अब्दुल्ला इसके अध्यक्ष नहीं बनते और न महबूबा मुफ्ती उनके पीछे चलती। सज्जाद गनी लोन साथ नजर नहीं आते। माकपा नेता मोहम्मद यूसुफ तारीगामी कश्मीरियों के शोषण की सियासत करने वालों के पिछलग्गू नहीं बनते। पीएजीडी के सभी घटक एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं।

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पीएजीडी का गठन जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के खिलाफ और पांच अगस्त 2019 से पूर्व की जम्मू कश्मीर की संवैधानिक स्थिति बहाल कराने लिए हुआ है। इसमें वही लोग शामिल हैं जिनकी नीतियों के कारण केंद्र सरकार को जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करना पड़ा। 73 साल का जम्मू कश्मीर का इतिहास और राजनीतिक घटनाक्रम खंगालें तो ये लोग कठघरे में खड़े नजर आएंगे। आम कश्मीरी की भावनाओं का शोषण करना, मजहब व इस्लाम के नाम पर कश्मीरियों को सियासत के लिए इस्तेमाल करना इनका शगल रहा है।

एक छत्र राज किया :

डॉ. फारूक अब्दुल्ला के पिता स्व. शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने कश्मीर की सियासत पर एकछत्र राज किया। सभी जानते हैं कि वह पाकिस्तानी नमक और हरे रूमाल की सियासत करते थे। लोकतंत्र उनके लिए इतना अहम था कि जब पूरे देश में विधानसभा का कार्यकाल पांच से छह साल हुआ तो उन्होंने छह साल करने में एक पल भी नहीं लगाया। जब यह व्यवस्था बदली तो वह छह साल को पांच साल करने से पीछे हट गए, क्योंकि वह ज्यादा समय तक सत्ता की चाबी पास रखते थे। उन्होंने पंचायत राज व्यवस्था को प्रभावी नहीं होने दिया। जिला विकास बोर्ड गठित किए तो उनकी कमान उन्होंने सिर्फ कैबिनेट मंत्रियों तक सीमित रखी। शेख अब्दुल्ला की लोकतंत्र के आड़ में गैर लोकतांत्रिक नीतियों के खिलाफ सज्जाद गनी लोन के पिता अब्दुल गनी लोन मैदान में उतरे थे। वह मंत्री रहे और उन्होंने ही 1987 के चुनाव में नेकां की धांधलियों से तंग आकर अलगाववाद का रास्ता पकड़ा। उन्होंने 1993 में हुर्रियत के गठन में अहम भूमिका निभाई। अब्दुल गनी लोन को कश्मीर और कश्मीरी कितने अजीज थे इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने खुलेआम आतंकवाद को कश्मीर पर काला धब्बा करार देते हुए लश्कर, जैश समेत अन्य आतंकी संगठनों को लताड़ा। उन्होंने पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ आवाज उठाई।

कश्मीर की सियासत पर नजर रखने वालों की मानें तो उनकी हत्या के दो ही कारण थे, एक आतंकियों की भत्र्सना और दूसरा वह चुनावी सियासत के लिए तैयार थे। सज्जाद गनी लोन ने जब अलगाववाद की सियासत को गुडबाय कर मुख्यधारा की सियासत शुरू की तो सभी को उनके उनके पिता का अक्स नजर आया। उन्होंने जब भाजपा के साथ हाथ सबके सामने हाथ मिलाया तो कहा गया कि वह उसूलों की सियासत में यकीन रखते हैं। उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की मौका परस्त सियासत के खिलाफ लोगों से वोट मांगे। पूरा कश्मीर जानताथा कि वह भाजपा के साथ हैं, मोदी को बड़ा भाई मानते हैं। इसके बावजूद उन्हें वोट मिले, मतलब कश्मीरियों ने उन्हें भी मोदी के नाम पर वोट दिया। उन्होंने जम्मू कश्मीर विधानसभा में कई बार नेकां का पर्दाफाश किया। पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार के भंग होने पर वही महबूबा के खिलाफ सबसे आगे थे।

पीडीपी का गठन नेकां से मुक्ति के लिए हुआ :

पीडीपी का गठन ही बकौल महबूबा कश्मीरियों को नेशनल कांफ्रेंस की मौकापरस्त सियासत से आजाद कराने के लिए हुआ था। उन्होंने कश्मीरियों को हरा रुमाल और नमक नहीं दिखाया, लेकिन मजहबी सियासत को हथियार जरूर बनाया। उन्होंने पार्टी का झंडा हरा रखा और कलम-दवात को निशान सिर्फ इसलिए बनाया क्योंकि वह मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट का चुनाव चिन्ह था। मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट के टिकट पर ही सलाहुदीन, अब्दुल गनी लोन, सईद अली शाह गिलानी जैसे अलगाववादियों ने वर्ष 1987 का विधानसभा चुनाव लड़ा था। पांच अगस्त 2019 से पहले महबूबा के हर बयान में नेशनल कांफ्रेंस कश्मीर की गददार थी। वह शेख अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला का कश्मीर को सबसे बड़ा गद्दार व दिल्ली का एजेंट बताती थी। डॉ. फारूक और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला भी पीडीपी को जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने के लिए नई दिल्ली द्वारा गठित जमात बताते थे।

कश्मीरी पार्टियों की नीतियों पर सवाल :

कश्मीर मामलों के जानकार बिलाल बशीर ने कहा कि अगर नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स कांफ्रेंस और उनके सहयोगी दलों ने वाल्मिकी समुदाय और पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों को मानवता के आधार पर नागरिकता दी होती, जम्मू कश्मीर की बेटियों का हक नहीं मारा होता तो शायद ही जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम लागू होता। यह लोग जम्मू कश्मीर के अवाम के लिए नहीं बल्कि अपने गुनाहों की सजा से बचने के लिए पीएजीडी के बैनर तले जमा हुए हैं। यह विचारधारा के लिए या अतीत का हिस्सा बन चुके जम्मू कश्मीर के झंडे के लिए एकजुट नहीं हुए हैं। अगर प्रदेश का झंडा इनका मकसद है तो यह फिर क्यों नहीं झंडे की बहाली को एकसूत्री एजेंडा बताकार चुनाव लड़ते। लोकसभा और राज्यसभा में पीडीपी-नेकां दोनों के सदस्य हैं, उन्होंने इस्तीफा क्यों नहीं दिया। जम्मू कश्मीर में जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए काम किया होता तो आज यही लोग यहां सत्ता में होते, सत्ता पाने के लिए पीएजीडी को सीढ़ी बनाने का प्रयास नहीं करते। 


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