काम नहीं आया अनुच्छेद-35ए का बहाना
राज्य के दो पार्टी ने खुद को चुनावों से अलग कर लिया उनका कहना है कि केंद्र सरकार अनुच्छेद 35-ए पर रुख स्पष्ट नहीं करती, तब तक चुनावों में भाग नहीं लेंगे।
जम्मू, [ अभिमन्यु शर्मा]। जम्मू-कश्मीर में स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव के लिए मंच तैयार हो चुका है। तेरह साल बाद हो रहे स्थानीय निकाय और सात साल बाद हो रहे पंचायत चुनावों के लिए राजनीतिक गतिविधियां तेज हो गई हैं। राज्य के दो प्रमुख राजनीतिक दल नेशनल कांफ्रेंस व पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने खुद को चुनावों से अलग-थलग कर लिया है।
उनका यह कहना है कि जब तक केंद्र सरकार अनुच्छेद 35-ए पर अपना रुख स्पष्ट नहीं करती, तब तक वे चुनावों में भाग नहीं लेंगे। इन दोनों दलों की भागीदारी न होने के कारण चुनावों की चमक कुछ फीकी जरूर पड़ी है, परंतु कांग्रेस, भाजपा समेत कुछ क्षेत्रीय दल चुनावी दौड में शामिल जरूर हैं।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका कश्मीर के कुछ इलाकों में प्रभाव है, ने भी नेकां और पीडीपी की तरह चुनाव से दूरी बना रखी है। स्थानीय निकाय चुनाव राज्य में पार्टी आधार पर और पंचायत चुनाव गैर राजनीतिक आधार पर हो रहे हैं। हालांकि इन चुनावों से अपने आप को बाहर करने वाले ये वही दल हैं जिन्होंने पिछले महीने ही करगिल हिल डेवलपमेंट काउंसिल के चुनावों में बढ़चढ़ कर भाग लिया था।
इन चुनावों में नेशनल कांफ्रेंस सबसे बडे दल के रूप में उभरी थी और पीडीपी को भी एक सीट मिली थी। अनुच्छेद 35-ए का मामला उस समय भी ज्वलंत था, परंतु दोनों में से किसी ने भी यह मुद्दा नहीं उठाया और चुनाव में जोरशोर से शामिल हुए थे। चार दशक बाद साल 2011 में जब जम्मू-कश्मीर में पंचायत चुनाव हुए थे, उस समय भी हालात ज्यादा साजगार नहीं थे, परंतु राजनीतिक दलों और लोगों में चुनावों को लेकर उत्साह था।
चुनावों के बहिष्कार, उम्मीदवारों को जान से मारने की धमकियों के बीच 4130 सरपंचों ओर 29719 पंचों के लिए हुए चुनाव में अस्सी प्रतिशत मतदान हुआ था। इसी तरह साल 2005 में स्थानीय निकायों के लिए पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन सरकार के समय में अंतिम बार चुनाव हुए थे। साल 2010 के बाद से चुनावों की प्रतीक्षा हो रही थी। पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भी राज्य में स्थानीय निकाय चुनाव करवाने की घोषणा की थी। चुनाव इस साल फरवरी महीने के मध्य में होने थे, परंतु कश्मीर में सुरक्षा हालात सही न होने के कारण चुनावों को बार-बार टाला गया। महबूबा मुफ्ती सरकार गिरते ही चुनाव होने की उम्मीदें कम हो गईं।
स्थानीय निकाय और पंचायती चुनाव न होने से राज्य में विकास पर पड़ रहे असर को देखते हुए केंद्र व राज्य प्रशासन के लिए भी अब ये चुनाव नाक का सवाल बनते जा रहे थे। इस साल राज्यपाल शासन लागू होने के कुछ दिन बाद ही तत्कलीन राज्यपाल एनएन वोहरा ने निकाय और पंचायत चुनावों के लिए राज्य प्रशासन को तैयारियां शुरू करने के निर्देश दिए। वोहरा के जाने के बाद नियुक्त हुए राज्यपाल सत्यपाल मलिक पर पीडीपी और नेकां ने अनुच्छेद-35ए के बहाने चुनाव टालने का दबाव जरूर बनाया, परंतु उन्होंने यह साफ कर दिया कि अनुच्छेद-35ए का इन चुनावों से कोई लेना देना नहीं है और चुनाव समय पर होंगे। सत्यपाल मलिक ने कहा ये चुनाव न तो मेरे लिए हैं और न ही दिल्ली के लिए, बल्कि आम कश्मीरियों के लिए हैं।
सभी राजनीतिक दल इसमें भाग लें ताकि लोगों को इसका लाभ मिल सके। इसके बाद राज्य में निकाय और पंचायती चुनावों की घोषणा हो गई। स्थानीय निकाय चुनाव चार चरणों में आठ अक्टूबर से सोलह अक्टूबर तक होंगे, जबकि पंचायत चुनाव नौ चरणों में 17 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर तक होंगे। इन चुनावों में राज्यपाल प्रशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती उम्मीदवारों को सुरक्षा मुहैया करवाने की होगी।
पाकिस्तान की शह पर काम कर रहे आतंकवादी और अलगाववादी चुनावों में खलल डालने की पूरी कोशिश करेंगे। आतंकवादियों ने बीते चौबीस घंटों में ही तीन पंचायत घरों को जला दिया। अलगाववादी भी चुनावों के बहिष्कार के लिए अभियान चलाए हुए हैं।
प्रशासन का यह प्रयास है कि चुनावों में अधिकांश मतदाता भाग लें और इसके लिए सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह बीते सोमवार को जम्मू में आए थे। अब देखना यह है कि वर्षो बाद ग्रामीण स्तर तक लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत बनाने के लिए हो रहे चुनावों में मतदाता कितने जोश से भाग लेते हैं।
विकास कार्यो को मिलेगा बढ़ावा :
राज्य में साल 2010 के बाद से ही स्थानीय निकाय निष्क्रिय पड़े हुए हैं। चुनाव न होने के कारण केंद्र से मिलने वाले करोड़ों रुपये भी नहीं मिल पाए हैं। आंकड़ों के अनुसार पिछले तीन साल में 900 करोड़ रुपये निकाय चुनाव न होने के कारण नहीं मिल पाए हैं। इसी तरह पंचायत चुनाव न होने के कारण भी 700 करोड़ रुपये केंद्र ने ब्लॉक कर दिए।
राज्य सरकार कई बार चुनाव करवाने के आश्वासन देती रही, परंतु चुनाव न होने का खामियाजा जम्मू-कश्मीर के शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों को भुगतना पड़ा। अब चुनाव के बाद एक बार जब लोगों द्वारा चुनी हुई पंचायतें और स्थानीय निकाय इकाइयां अस्तित्व में आ जाएंगी तो केंद्र सरकार से करोड़ों रुपयों की ग्रांट फिर से मिलना शुरू होगी और जमीनी स्तर पर विकास कार्यो को भी बढ़ावा मिलेगा।