Yasin Malik Case: क्या था रूबिया अपहरण कांड, पांच आतंकी छोड़ने को मजबूर हुई सरकार, यासीन मलिक की इस करतूत से पनप उठा था आतंकवाद
Rubia sayeed kidnapping case आठ दिसंबर 1989 में रूबिया सईद के अपहरण मामले में अदालत ने इस साल 11 जनवरी को यासीन मलिक और नौ अन्य के खिलाफ आरोप तय किए थे। इस अपहरण कांड के बाद से ही घाटी में आतंकवाद तेजी से बढ़ा!
नोएडा, आनलाइन डेस्क। कश्मीरी अलगाववादी नेता यासीन मलिक ने अपने साथियों संग मिलकर आठ दिसंबर 1989 को तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की छोटी बेटी रूबिया सईद का अपहरण किया था। इसके छह दिन पहले ही 2 दिसंबर 1989 को विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने शपथ ली और मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृहमंत्री बनाया था। उन्हें गृहमंत्री बनाने की वजह साफ थी कि घाटी में बढ़ रहे असंतोष और आतंकवादी घटनाओं के मद्देनजर कश्मीरियों को भरोसा दिलाया जा सके लेकिन यासीन मलिक के आतंकी संगठन जेकेएलफ यानी जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट ने उस भरोसे को चकनाचूर कर दिया।
रुबिया की आजादी की कीमत सरकार को पांच आतंकियों को रिहा कर चुकानी पड़ी। 122 घंटे बाद रूबिया रिह हो चुकी थी लेकिन मुफ्ती के दामन पर षडयंत्र का दाग लग गया। जो आतंकी रिहा किए गए थे उनमें शोख मोहम्मद, शेर खान, नूर मोहम्मद कलवल, जावेद जरगार और अल्ताफ बट शामिल थे।
रूबिया अपहरण मामले में यासीन मलिक समेत 10 पर आरोप :
रूबिया सईद के अपहरण मामले में आरोपितों पर हत्याएं, हत्या के प्रयास और अब खत्म किए जा चुके टाडा अधिनियम की धाराओं के तहत आरोप लगाए गए। आरोपितों में अली मोहम्मद मीर, मोहम्मद जमां मीर, इकबाल अहमद, जावेद अहमद मीर, मोहम्मद रफीक, मंजूर अहमद सोफी, वजाहत बशीर, मेहराज-उद-दीन शेख और शौकत अहमद बख्शी भी शामिल हैं। रूबिया का आतंकियों ने उस समय अपहरण कर लिया था जब वह ललदद अस्पताल से ड्यूटी पूरी होने के बाद घर के लिए निकली थी।
रूबिया के बदले में आतंकियों ने साथी आतंकियों की मांग रखी थी। घटना का राज्य पर दूरगामी प्रभाव देखा गया। कहा जाता है कि इस अपहरण कांड के बाद से ही घाटी में आतंकवाद तेजी से बढ़ा और 1990 से वादी में कश्मीरी पंडितो के विस्थापन की कहानी शुरू हुई।
इसके बाद बदली घाटी
माना जाता है कि इस वक्त तक घाटी में आतंकवाद सिर उठाने में सक्षम नहीं था लेकिन अपहरण और उसके बदले 5 आतंकियों की रिहाई ने आतंकवाद को पनपने का मौका दे दिया। 1990 में फिर कश्मीरी पंडितो के विस्थापन की कहानी प्रारंभ हुई जो घाटी से उनके सफाए पर खत्म हुई।
1990 से 1995 तक अपहरण का एक लंबा दौर चला। देश में उन दिनों इस बात पर काफी बहस चली कि अगर वीपी सिंह की सरकार ने रूबिया सईद के मामले में घुटने नहीं टेके होते तो शायद आतंकवादियों को इतनी शह नहीं मिल पाती।
रूबिया अपहरण कांड घाटी में 2014 में चुनाव से पहले गर्माया था। इसमें घाटी के ही एक अलगाववादी नेता हिलाल वार की किताब ‘ग्रेट डिस्क्लोजरः सीक्रेट अनमास्क्ड’ में आरोप लगाया गया है कि रूबिया का अपहरण महज एक राजनीतिक नाटक था।
1989-90 के कश्मीर में ‘आतंक की दहशत’
करीब तीन दशक पहले कश्मीरी पंडितों को बड़ी संख्या में कश्मीर घाटी से पलायन करना पड़ा था। अपनी जान बचाने के लिए कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर मजबूर हो गए थे। हाल में प्रकाशित उपन्यास ‘आतंक की दहशत’ देश के इतिहास के लगभग भुला दिए गए इस स्याह अध्याय पर रोशनी डालता है। कश्मीर में जन्मे सेवानिवृत्त प्रोफेसर तेज एन. धर ने डायरी शैली में लिखे इस उपन्यास में कश्मीरी पंडितों की बेबसी और मजबूरी को बहुत ही सटीक और मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है।
इसमें वर्ष 1989-90 के कश्मीर को दर्शाया गया है, जब घाटी में आतंकी हिंसा चरम पर थी। पंडितों को लगातार कश्मीर से चले जाने की चेतावनी दी जा रही थी। उन्हें भयभीत करने के लिए रोज कत्ल किए जा रहे थे। उनकी बहन-बेटियों को दुष्कर्म का शिकार बनाया जा रहा था।
एक अज्ञात कश्मीरी की यह डायरी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले सियासी दलों और नेताओं को भी कठघरे में खड़ा करती है। बिगड़ते हालात के बीच देश के तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रूबिया के अपहरण की घटना ने सूबे में आतंकवाद को हवा दी। रूबिया की सुरक्षित वापसी के बदले आतंकियों ने जेल में बंद अपने पांच साथी रिहा करवा लिए।
उपन्यास के नायक ने अपहरण की इस घटना के पीछे अलगाववादी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक का हाथ होने की आशंका जताई। यह आशंका गलत नहीं थी। हाल में स्थानीय अदालत में दाखिल आरोप-पत्र में यासीन मलिक को ही इसका मुख्य साजिशकर्ता बताया गया है। रूबिया के अपहरण की घटना से निपटने में राज्य व केंद्र सरकार के रवैये ने सुरक्षाबलों का मनोबल तोड़ दिया, जबकि आतंकियों के हौसले बुलंद कर दिए। वे मनमानी पर उतर आए थे।
वर्ष 1990 की 18-19 जनवरी की रात 12 बजे मस्जिदों के लाउड स्पीकर गरज उठे, ‘हम क्या चाहते, आजादी।’
इसके जरिये एक तरह से पंडितों को स्पष्ट संदेश दे दिया गया कि घाटी में अब उनके दिन लद गए। डायरी शैली में लिखे गए इस उपन्यास में अपने ही मुल्क में शरणार्थी बने कश्मीरी पंडितों की बेबसी को सटीक और मार्मिक तरीके से व्यक्त किया गया है