Jammu Kashmir : मजनू को लैला तो कश्मीरियों को कांगड़ी है प्यारी
पहाड़ाें पर बर्फ की हल्की चादर बिछाकर ठंड ने कश्मीर में अपनी आमद का एलान कर दिया है। अगले दो दिनों में भारी हिमपात की संभावना हैलेकिन इससे होने वाली भीषण सर्दी से निपटने के लिए कश्मीरी में कांगड़ी तैयार होे चुकी है।
श्रीनगर, नवीन नवाज । पहाड़ाें पर बर्फ की हल्की चादर बिछाकर ठंड ने कश्मीर में अपनी आमद का एलान कर दिया है। अगले दो दिनों में भारी हिमपात की संभावना है,लेकिन इससे होने वाली भीषण सर्दी से निपटने के लिए कश्मीरी में कांगड़ी तैयार होे चुकी है। कांगड़ी- कश्मीरियों द्वारा ठंड में खुद को गर्म रखने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली एक परंपरागत वस्तु। इसे सिर्फ एक वस्तु कहना इसके साथ नाइंसाफी होगी,क्योंकि यह कश्मीर की नायाब हस्तकला औेर संस्कृति का भी अहम हिस्सा है। कांगड़ी की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कश्मीरी भाषा में एक कहावत है कि मजनु को जिस तरह लैला प्यारी थी, उसी तरह कश्मीरियों को कांगड़ी प्यारी है।
कांगड़ी को कांगर भी कहते हैं
कश्मीर के सामाजिक ताने-बाने में पूरी तरह रची बसी कांगड़ी को कांगर भी कहते हैं। अगर कभी कोई कश्मीर घूमने आया है तो उसने जरुर इसे देखा और इस्तेमाल किया हाेगा। वह इसे यादगार के तौर पर भी अपने घर ले गया होगा। कांगड़ी सिर्फ कश्मीर तक सीमित नहीं रही है,यह अब विदेशों में भी पहुंच चुकी है। अगर काेई इसका इस्तेमाल ठंड से बचाव के लिए नहीं कर रहाहै तो यह उसके घर की सजावट चार चांद लगा रही है।
कश्मीर में प्रत्येक परिवार में एक अहम सदस्य की तरह सबकी लाडली होती है कांगड़ी
कश्मीर में प्रत्येक परिवार में एक अहम सदस्य की तरह सबकी लाडली कांगड़ी का निर्माण भी प्रेम, धीरज और कला का नायाब मिश्रण है। कुम्हार मिटटी लाकर पहले उसे गूंदेगा फिर चाक पर उस मिट्टी का कटोरे जैसा बर्तन तैयार करेगा। उसे पकाएगा। मिट्टी के कटोरे को कुंडल कहते हैं और अगर उसे पकड़ने के लिए उसका मिट्टी का ही हत्था तैयार किया जाए तो उसे मुनन या कुंग कहते हैं। पुराने समय में कांगड़ी को पकड़ने के लिए कुंग का ही अधिकतर इसतेमाल हाेता था। अब कुंग वाली कांगड़ी बहुत कम बनती है। कुंडल का व्यास छह से नौ इंच हाेता है ।उसके बाद मिट्टी के इस कटोरे का कश्मीर मिलने वाली विलो विक्कर की पतली महीन टहनियों से तैयार किए गए एक छोटे जाल जिसे टोकरी भी कहते हैं, में इसे इस तरह से फंसाया जाएगा कि यह कभी बाहर नहीं निकले। इस टाेकरी के दोनों तरफ थामने के लिए हत्थियां भी बनायी जाती है। इन हत्थियाें के साथ एक लकड़ी या फिर लोहे का चम्मच या फिर छोटा से चिमटा बांधा जाता है, यह कांगड़ी के भीतर कोयले को पलटने, राख हटाने के लिए इस्तेमाल होता है। इसे त्सलान और कनीज भी कहते हैं।
तापमान शून्य से नीचे माइनस 40 डिग्री पर भी हल्की गर्माहट ठंड का अहसास नहीं होने देती
कश्मीर में लोग इसे अपने फिरन के भीतर अपने हाथों में लेकर चलते हैं। यह शरीर को गर्मी देती है। कई बार खाना ठंडा हो जाए तो उसे गर्म करने में भी मदद करती है। इसे लेकर कहीं भी बैठकर शरीर को गर्म किया जा सकता है। बिस्तर में भी इसे लेकर लेटा जा सकता है लेकिन अगर कोई नौसिखिया बिस्तर में इसका इस्तमाल करे तो यह हादसे का कारण बन सकती है। कुंडल में छाेटे गर्म कोयले रखे जाते हैें, जिनके ऊपर या नीचे चिनार के सूखे पत्ते बिछाए जाते हैं। इसके अलावा राख भी रखी जाती है। यह धीरे धीरे शरीर को गर्मी देती है। बाहर चाहे तापमान शून्य से नीचे माइनस 40 डिग्री भी चला जाए तो कांगड़ी से निकलने वाली हल्की गर्माहट ठंड का अहसास नहीं होने देती।
घर में आए मेहमान को सबसे पहले पेश की जाती है कांगड़ी
आधुनिकता के इस दौर जब ठंड से बचाव के कई उपाय उपलब्ध हैं,कांगड़ी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। कारण- यह सस्ती है, बिजली की जरुरत नहीं हैऔर इसमें रखने के लिए गर्म काेयला आसानी से मिल जाता है। घर में जब कोई मेहमान आता है तो सबसे पहले उसे कांगड़ी ही पेश की जाती है। इसके अलावा अगर किसी घर में जब कभी कोई शुभ कार्य होता है या किसी की नजर उतारनी हो तो कांगड़ी में इसबंद को जलाया जाता है। इसबंद के जलते ही पूरे वातावरण में खुशबु फैल जाती है।
बांडीपोरा की कांगड़ी का कोई मुकाबला नहीं
दो सौ रुपये से लेकर दो हजार रुपये में बिकने वाली कांगड़ी का निर्माण वादी के लगभग हर हिस्से में हाेताा है लेकिन शरीर का गर्मी देने और ज्यादा देर तक टिकाऊ बांडीपोरा में बनने वाली कांगड़ी मानी जाती है। चरार ए शरीफ की कांगड़ी की भी मांग खूब रहती है। कांगड़ी को विभिन्न रंगाें से भी सजाया जाता है। इसके अलावा शादी-विवाह में उपहार के तौर पर दी जाने वाली कांगड़ी भी अलग से तैयार की जाती है। उसे अलग अलग रंगों, कांच, रंगीनधागों से भी सजाया जाता है। इसे शीशदार भी बोला जाता है। यह सामान्य कांगड़ी से कुछ बड़ी होती है। कश्मीर में जब किसी लड़की की शादी होती है तो वह यह कांगड़ी अपने साथ लेकर जाती है।वह इसे अपनी सास को भेंट करती है। कई बार जब कश्मीर में पहली बार बर्फ गिरती थी तो लड़की के मायके वाले शीशदार कांगड़ी व कुछ उपहार लेकर उसकी ससुराल शीन मुबारक कहने जाते थे। खैर,अब यह परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है।
कांगड़ी कश्मीर में कब आई को लेकर सबके हैं अलग-अलग मत
कांगड़ी कश्मीर में कब और कैसे आयी इसके लिए भी अलग अलग मत हैं। कई लोग दावा करते हैं कि यह कश्मीर मेंं सुल्तान जैन उल आबदीन के समय में लोकप्रिय हुई तो कुछ लोगों का दावा है कि मुगल बादशाह अकबर के दौर में कांगड़ी कश्मीर में पहुंची थी। मुगल दौर से कांगड़ी को जोड़ने वाले कहते हैं कि मुगल फौजों के साथ कुछ इतालवी यात्रीभी कश्मीर आए थे, उन्होंने ही इसे सबसे पहले लाया था। इतालवी संबंध हाेता तो कांगड़ी को कांगर या कांगड़ी नहीं बल्कि किसी इतालवी नाम से ही पुकारा जाता। कई लोग दावा करते हैं कि कश्मीर में कांगड़ी सदियों से थीऔर राजतरंगिनी में भी कल्हन ने इसका उल्लेख किया है। कांगड़ी को विशुद्ध कश्मीरी बताने वाले कहते हैं कि इसका संस्कृत नाम काष्ठ अंगारिका है। काष्ठ- लकड़ी और अंगारिका का मतलब गर्म आग वाला बर्तन।