खुदरू से जान बचाकर आए प्यारेलाल ने कहा- जो कश्मीरियत घाटी में देखी, उसके लौटने का अब नहीं यकीन
शरणार्थी कैंप के छोटे से क्वार्टर में रह रहा यह परिवार कश्मीर जाने को तो ललायित है लेकिन दिल में एक बात खटकती है कि क्या वही कश्मीरियत उनको कहां मिलेगी।
जम्मू, गुलदेव राज। एक समय था जब घाटी में हिंदुओं-मुस्लिमों में जबरदस्त भाईचारा था। कश्मीरी पंडित बैखोफ होकर और शान से कश्मीर की हर गली से गुजरा करते थे। घाटी की हर गली अपनी लगती थी और उन्हें वहां कोई डर नहीं था। इतना ही नहीं पूरे कश्मीर में पंडितों का बहुत मान-सम्मान था। चौक-चौराहों व नुक्कड़ की बैठकों में कश्मीरी पंडितों की शिरकत जरूर होती। इसी का नाम ही तो कश्मीरियत था। फिर समय बदला, पाक समर्थित आतंकवाद का ऐसा दौर आया, जिसने इस्लाम के नाम पर ऐसी नफरत फैलाई कि कश्मीरी पंडित अपनी ही भूमि पर असुरक्षित हो गए।
कभी अपनी लगने वाली गलियां बेगानी और डरावनी लगने लगीं। ऐसे माहौल में उनको घाटी छोडऩा पड़ा। घाटी से निकाले जाने के अब 30 साल बीत गए हैं। कुछ माहौल तो बदला है, लेकिन दरार, दहशत आज भी कायम है। अब कश्मीरी पंडितों को घाटी में अलग से कॉलोनियां बनाकर भी सरकार देती है तो भी वे पुराने दिन लौटने वाले नहीं, जिसे कभी वे गर्व से कश्मीरियत कहा करते थे। यह कहना है घाटी के खुदरू (अच्छाबल) गांव से आए प्यारेलाल व उनके परिवार का, जो जम्मू से 20 किलोमीटर दूर पुरुखू शरणार्थी कैंप में अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं। उनके साथ उनकी पत्नी ललिता, बेटी मीनाक्षी के अलावा बेटा, बहु व उनके दो बच्चे मानिया अंबरदार व श्रद्धा अंबरदार रहते हैं।
शरणार्थी कैंप के छोटे से क्वार्टर में रह रहा यह परिवार कश्मीर जाने को तो ललायित है, लेकिन दिल में एक बात खटकती है कि क्या वही कश्मीरियत उनको कहां मिलेगी, जिसमें आपसी भाईचारा कूट-कूट कर भरा था। घाटी छोड़ते समय एमईएस में नौकरी करने वाले प्यारेलाल अब 65 साल के हो गए हैं। उन्होंने बताया कि घाटी में कश्मीरी पंडितों को बसाया भी गया तो भी कश्मीरी पंडितों को वहां खुला वातावरण अब नहीं मिल सकेगा। बीते 30 साल में दिलों की दूरियां बहुत बढ़ चुकी हैं। इसलिए कई सवाल दिल में हैं।
कभी-कभी जाते हैं घर: पुरखू शरणार्थी कैंप में प्यारेलाल व उनकी पत्नी ललिता सोमवार शाम को अपने पौत्र व पौत्री मानिया और श्रद्धा को कश्मीरी संस्कृति के बारे में बता रहे थे। सहसा उनका ध्यान खदरू गांव में बने मकान की ओर गया। कुछ ही साल पहले वे अपनी बेटी मीनाक्षी के साथ अपने इस मकान में गए थे और साफ-सफाई की थी। साल दो साल में कभी-कभी घर का कोई सदस्य वहां जाता है और घर की सफाई कर लौट आता है, लेकिन वहां रहने में आज भी खतरा है। हालांकि उनका यह गांव सैन्य क्षेत्र में होने के कारण काफी सुरक्षित माना जाता है।
सबसे आखिर में छोड़ा था घर: 1990 में जब कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन कर गए थे, तो प्यारेलाल के कई रिश्तेदारों ने भी घाटी छोड़ दिया। प्यारेेलाल ने सबसे आखिर में पलायन किया। ललिता ने बताया कि सोचते रहे कि उनका गांव सुरक्षित क्षेत्र है, जल्दी ही वातावरण ठीक हो जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आतंकवाद की हवा इतनी तेज हो गई कि उनको अपने घरों से उजडऩा ही पड़ा।