Kashmiri Pandit: कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से हो होमलैंड, पूरे सम्मान के साथ सुरक्षित वापसी होनी चाहिए
राजनीतिक दलों ने जानबूझ कर पंडितों को राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं होने दिया। अगर ऐसा न होता तो हब्बाकदल विधानसभा सीट को इस तरह से नहीं बांटा जाता कि पंडितों का वर्चस्व खत्म हो जाए।
जम्मू, राज्य ब्यूरो। कश्मीर से तीस साल पहले अपने घर छोड़ने के लिए विवश हुए पंडितों को घाटी में तभी बसाया जा सकता है, जब उनके लिए अलग से केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाए। उन्हें कश्मीर के अविभाजित उत्तर-पूर्व में जगह देकर अलग होमलैंड दिया जाए। यह जम्मू कश्मीर के कुल क्षेत्रफल का सिर्फ चार फीसद ही होगा। उन्हें संवैधानिक, राजनीतिक और मौलिक अधिकारों के अलावा रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य हर अधिकार दिए जाने चाहिए। पूरे सम्मान के साथ सुरक्षित वापसी होनी चाहिए। तभी कश्मीरी पंडित वापस घाटी जाएंगे। यह बात जागरण विमर्श में पनुन कश्मीर के चेयरमैन डॉ. अग्निशेखर ने कही।
उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कश्मीर से जो निर्वासन हुआ, वह एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच धर्म के आधार पर हुआ। पूरा देश चुप रहा। राज्य, सिस्टम, मीडिया व मानवाधिकार कार्यकर्ता किसी ने कुछ नहीं कहा। पंडितों को खुद संघर्ष करना पड़ा। कश्मीरी पंडितों का जातीय नरसंहार हुआ। डेढ़ हजार से अधिक को मार दिया गया। जब पंडित सब कुछ लुटाकर जम्मू आए तो सरकार उन्हें पांच सौ रुपये राशन के लिए और नौ किलोग्राम आटा देती थी। यह भी उन परिवारों के लिए था, जिनकी आय का कोई स्नोत नहीं था। उन्होंने कहा कि पंडितों की वापसी नहीं पुनर्वास होना चाहिए। यह तभी होगा जब करीब 75 हजार परिवारों को एक ही जगह बसाया जाएगा। डॉ. अग्निशेखर ने कहा कि कश्मीरी पंडितों के घर छोड़ने के बारे में बहुत कुछ झूठ कहा जाता है। सच तो यह है कि उस समय कश्मीर की अखबारों में धमकी भरे नोटिस होते थे कि 48 घंटे में घर छोड़ दो। अपनी बहु बेटियों को यहीं रहने दो और खुद यहां से चले जाओ नहीं तो मारे जाओगे। बस इसके बाद ही लाखों पंडित सब कुछ गंवा कर घर छोड़ने के लिए विवश हुए थे। पहली बार सरकार ने कुछ ऐसे कदम उठाए हैं, जिससे उम्मीद जगी है कि इस बार पंडितों की घाटी वापसी हो सकती है। पहली बार सरकार ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फंट्र पर प्रतिबंध लगाकर यासीन मलिक को हिरासत में लिया और कहा कि यह पंडितों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार है। अनुच्छेद 370 को हटाया गया, जिसका एक मुखौटे के तौर पर इस्तेमाल होता था।
क्या कश्मीरी पंडितों को जानबूझ कर सशक्त नहीं होने दिया गया?
यह सही है कि राजनीतिक दलों ने जानबूझ कर पंडितों को राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं होने दिया। अगर ऐसा न होता तो हब्बाकदल विधानसभा सीट को इस तरह से नहीं बांटा जाता कि पंडितों का वर्चस्व खत्म हो जाए।
क्या पंडितों की पहचान छीनने की भी साजिश हुई?
जब पंडित कश्मीर में रहते थे, तब यह झूठ फैलाया जाता था कि कश्मीर में सभी सरकारी नौकरियों पर पंडितों का कब्जा है, लेकिन जब नब्बे के दशक में हमें घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया तो उस समय मात्र 14 से 17 हजार ही पंडित सरकारी कर्मचारी निकले।
संसद तक अपनी आवाज पहुंचाने में देरी क्यों हो गई?
शायद राजनीतिक दलों को डर था कि अगर उनकी आवाज को वे संसद में उठाते हैं तो वोट बैंक पर असर न पड़ जाए। तीस वर्षो में शायद ही कोई ऐसी सरकार व राजनीतिक दल होगा, जिसे हमने समस्या से अवगत नहीं करवाया।