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'शिकारा' के साथ बढ़ता गया विस्थापन का दर्द

बड़ी बात यह कि फिल्म के दूसरे पहलुओं की अपेक्षा पंडितों के विस्थापन का दर्द अधिक प्रभावी रहा। कुछ ने तो कहा कि जो बात वह वह वर्षो से दुनिया तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे थे उसे फिल्म ने अभियान की तरह दुनिया तक पहुंचाया है।

By JagranEdited By: Published: Sat, 08 Feb 2020 10:32 AM (IST)Updated: Sat, 08 Feb 2020 10:32 AM (IST)
'शिकारा' के साथ बढ़ता गया विस्थापन का दर्द
'शिकारा' के साथ बढ़ता गया विस्थापन का दर्द

जागरण संवाददाता, जम्मू : घाटी से कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के दर्द को उकेरती फिल्म शिकारा दर्शकों को अंदर तक झकझोर गई। किसी को अपने बचपन के दिन याद आ गए तो किसी को जिंदगी के लिए संघर्ष रुला गया जब वह जनवरी 1990 में कश्मीर में अपने घरों से निकाले गए थे। फिल्म देखने पहुंचे हर व्यक्ति को पुरानी यादें ताजा हो गई। साथ ही कट्टरपंथियों पर सवाल भी खड़े कर गई।

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फिल्म देखने वालों में कश्मीरी पंडित समुदाय की संख्या अधिक रही। हालांकि, बहुत से कश्मीरी लोग जो इन दिनों सचिवालय के साथ जम्मू में हैं, वह भी बच्चों के साथ फिल्म देखने पहुंचे। बड़ी बात यह कि फिल्म के दूसरे पहलुओं की अपेक्षा पंडितों के विस्थापन का दर्द अधिक प्रभावी रहा। कुछ ने तो कहा कि जो बात वह वह वर्षो से दुनिया तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे थे उसे फिल्म ने अभियान की तरह दुनिया तक पहुंचाया है। जैसे-जैसे फिल्म की कहानी आगे बढ़ती गई विस्थापन का दर्द उतना ही अधिक भारी होता गया। केसी ओडी वन में फिल्म देखकर आए कश्मीर के रहने वाले अध्यापक एजाज अहमद ने कहा कि फिल्म किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है। कश्मीर में जो हुआ है, वहीं से कहानी आगे बढ़ती है। कश्मीर का विस्थापन किसी के लिए भी ठीक नहीं था। आज मैं अपने बच्चे को साथ लेकर फिल्म देखने आया हूं ताकि उसे भी कश्मीर में हुए उस शर्मनाक हादसे के बारे में पता चल सके। फिल्म तो मैं मनोरंजन के लिए देखने आया था लेकिन इसने रुला दिया। कुछ कट्टरपंथी ताकतों ने कश्मीरियत को बदनाम कर दिया।

डोडा के बोधराज ने कहा कि फिल्म अच्छी है। हकीकत पर बनी इस फिल्म को देखकर बहुत जानने का मौका मिला। फिल्म में पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को भड़काऊ भाषण देते दिखाया गया है। फिल्म का हर दृश्य जीवन से जुड़ा है। खासकर एक तरफ कैंपों का जीवन और दूसरी तरफ प्यार, यह सोचकर ही कोई भी भावुक हो सकता है। फिल्म देखकर निकले हरीश दत्ता ने कहा कि फिल्म कश्मीर की मानसिकता बदलने पर जोर देती दिख रही है। कलाकरों की मेहनत फिल्म को हकीकत की तरह दिख रही है। दिल पसीजे तो खुले मन से पंडितों की वापसी की चिंता करें कट्टरपंथी

आमिर नासिर ने कहा कि एक बात जरूर कहना चाहता हूं कि विस्थापन दुखदायी था। नफरत से दुनिया नहीं चलती। फिल्म देखकर अगर कट्टरपंथियों को होश आ जाए तो वह दिल से कश्मीरी पंडितों की वापसी की चिता करें। जब विस्थापन हुआ था तब मैं बहुत छोटा था। मेरे भी बहुत से दोस्त मुझसे बिछड़ गए थे। हमारे पड़ोस वाली आंटी का परिवार भी रातों-रात जम्मू आ गया था। आज फिल्म देखकर उन्हीं दिनों के दर्द को याद करने आया था। हर पीढ़ी जरूर देखे फिल्म

राकेश कुमार ने कहा कि विस्थापन के दिनों में उनके पिता की नौकरी श्रीनगर मे ही थी। हम कश्मीर में पापा के साथ ही रह रहे थे। हालात खराब होते ही हमें भी जम्मू आना पड़ा था। जबसे फिल्म चर्चा में है दिल में इच्छा थी कि फिल्म जरूर देखने जाना है। आज फिल्म देख कर वर्षों की यादें ताजा हो गई हैं। हमें बच्चों को ही नहीं, हर पीढ़ी को यह फिल्म देखनी चाहिए। उन्हें भी पता लगना चाहिए कि विस्थापन का दर्द क्या होता है। फिल्म सिर्फ विस्थापन पर ही नहीं है। स्थानीय कलाकारों को देखकर अच्छा लगा। निर्देशन अच्छा है। कलाकार भी हकीकत से जुडे़ दिखे। किसी समुदाय के खिलाफ नहीं

कश्मीर अनंतनाग के जहूर अहमद ने कहा कि कश्मीर में फिल्म देखने का मौका तो मिलता नहीं। जम्मू में आते हैं तो फिल्म देख लेते हैं। आज फिल्म शिकारा का पोस्टर देखा तो इसे देखने आ गया। फिल्म अच्छी है। किसी समुदाय पर या उसके खिलाफ नहीं है। बल्कि कट्टरवादियों को भी अगर फिल्म में उकेरे दर्द का अहसास जगे तो फिल्म की बहुत बड़ी सफलता होगी। खुदा ऐसा किसी के साथ न करें, जो कश्मीरियों के साथ हुआ है।


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