जम्मू-कश्मीर में हीमोफीलिया के मरीजों के लिए डायग्नोस्टिक सुविधा तक नहीं
जम्मू संभाग में अस्सी के दशक में जीएमसी अस्पताल में काम करने वाले थोडू राम में सबसे पहले यह बीमारी देखने को मिली थी। डॉ. आर्या ने इस बीमारी का पता लगाया था।
रोहित जंडियाल, जम्मू। राज्य में हीमोफीलिया के मरीजों की स्थिति कुछ ठीक नहीं है। यूं तो अस्सी के दशक में ही हीमोफीलिया के मरीजों का पता चल गया था, लेकिन इनकी जांच और इलाज के लिए दशकों बाद भी पूरे प्रबंध नहीं हुए हैं। बीमारी का पता लगाने के लिए डायग्नोस्टिक सुविधाएं नहीं हैं। कई बार अस्पतालों में महीनों दवाई उपलब्ध नहीं होती है।
इस समय राज्य भर के अस्पतालों में करीब चार सौ हीमोफीलिया के मरीज दर्ज हैं। मगर छह साल पहले तक स्थिति यह थी कि उनके इलाज के लिए अस्पतालों में कोई भी सुविधा नहीं थी। मरीजों ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की। इस पर हाईकोर्ट के निर्देश पर राज्य के दोनों मेडिकल कॉलेजों में इलाज के लिए सेंटर बनाए गए। जम्मू संभाग में गांधीनगर अस्पताल, डोडा, राजौरी और पुंछ के जिला अस्पतालों में भी सेंटर बनाए गए। मगर स्वास्थ्य विभाग के अधीन चार सेंटरों में अभी भी मरीजों को दवाई दान से ही आती है। मेडिकल कॉलेज और एसएमजीएस अस्पताल में जरूर दवाइयां खरीद कर मरीजों को दी जा रही हैं। मगर इनमें से किसी भी सेंटर में डायग्नोस्टिक सुविधा नहीं है, जिस कारण राज्य में सभी मरीजों का पता नहीं चल पाया है। कहीं अधिक होते हैं मरीज हीमोफीलिया फेडरेशन (इंडिया) के अनुसार देश में हीमोफीलिया के 20,000 से ज्यादा रजिस्टर्ड मरीज हैं। देश की आबादी को देखते हुए यह संख्या कहीं ज्यादा हो सकती है।
गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में पैथोलॉजी विभाग की प्रमुख और हीमोफीलिया सेंटर की प्रभारी डॉ. रूबी रेशी के अनुसार इस बीमारी से पीड़ित बच्चों को सामान्य जिंदगी जीने के लिए जल्द जांच और उपचार जरूरी है। पर्याप्त फिजियोथेरेपी भी होनी चाहिए। इससे पीड़ित बच्चे सक्रिय और स्वस्थ रहते हैं। समाज और सरकार को खून से जुड़ी इस बीमारी से लड़ने के लिए हाथ मिलाने की जरूरत है।
जेनेटिक है बीमारीः जीएमसी अस्पताल जम्मू में हीमोफीलिया सेंटर के प्रभारी डॉ. अनिल महाजन का कहना है कि यह बीमारी पूरी तरह जेनेटिक है। माता-पिता में यह बीमारी होने से ही बच्चों में भी होती है। इस बीमारी से पीड़ित लोगों में ब्लड क्लाटिंग की क्षमता एक फीसद से भी कम होती है। यह बीमारी सिर्फ पुरुषों में होती है। महिलाएं इसमें सिर्फ कैरियर का काम करती हैं। जब भी किसी मरीज को ब्ली¨डग शुरू होती है तो एंटी हिमोफिलिक फैक्टर दिया जाता है। अस्पताल में इलाज पूरी तरह निशुल्क है।
थोडू राम थे पहले मरीजः जम्मू संभाग में अस्सी के दशक में जीएमसी अस्पताल में काम करने वाले थोडू राम में सबसे पहले यह बीमारी देखने को मिली थी। डॉ. आर्या ने इस बीमारी का पता लगाया था। 54 वर्ष की उम्र में ब्रेन में ब्ली¨डग होने के कारण उनकी मौत हो गई थी। नहीं होती बीमारी की जानकारी इस बीमारी के बारे में एक तथ्य यह भी है कि इसके बारे में पर्याप्त जानकारी और पर्याप्त प्रबंध नहीं होने से यह जानलेवा साबित हो सकती है। हीमोफीलिया का इलाज जरूरत के अनुरूप फैक्टर रिप्लेसमेंट थेरेपी से किया जा सकता है। खून का थक्का जमाने वाले फैक्टर के प्रोफिलैक्टिक इंफ्यूजन के जरिये खून के असामान्य बहाव को रोका जा सकता है। दो प्रकार के होते हैं हीमोफीलिया हीमोफीलिया दो प्रकार के होते हैं।
हीमोफीलिया ए और हीमोफीलिया बीः सबसे सामान्य हीमोफीलिया ए है। इस बीमारी में मरीज के शरीर में क्लाटिंग फैक्टर-आठ पर्याप्त नहीं होता। वहीं, हीमोफीलिया बी के मरीज ज्यादा नहीं पाए जाते। इसके मरीजों में फैक्टर-नौ की पर्याप्त मात्रा नहीं होती है। दोनों ही स्थितियों में एक जैसा होता है और मरीज को चोट लगने की स्थिति में खून सामान्य से ज्यादा समय तक बहता रहता है। एक जैसे होते हैं लक्षण हीमोफीलिया ए और बी के लक्षण समान होते हैं। बड़े खरोंच के निशान। कटने, दांत टूटने या सर्जरी के बाद सामान्य से ज्यादा समय तक खून बहना। बिना किसी स्पष्ट कारण के अचानक शरीर में कहीं रक्तस्त्राव होना। मांसपेशियों और जोड़ों में रक्तस्त्राव। जोड़ों और मांसपेशियों में रक्तस्त्राव से जोड़ों में सूजन, दर्द और सख्ती आना।