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चीन सीमा विवाद के बहाने चर्चा में आई लद्दाख की गलवन घाटी, जानिए क्या है इसका इतिहास!

अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में इतिहास में पीएचडी कर रहे शोधकर्ता वारिस उल अनवर के मुताबिक गलवन कश्मीर में रहने वाला पुराना कबीला है।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Fri, 29 May 2020 11:05 AM (IST)Updated: Fri, 29 May 2020 03:17 PM (IST)
चीन सीमा विवाद के बहाने चर्चा में आई लद्दाख की गलवन घाटी, जानिए क्या है इसका इतिहास!
चीन सीमा विवाद के बहाने चर्चा में आई लद्दाख की गलवन घाटी, जानिए क्या है इसका इतिहास!

श्रीनगर, नवीन नवाज। पूर्वी लद्दाख में चीन और भारत के बीच सैन्य तनाव का केंद्र बनी गलवन घाटी चर्चा में आई है। गलवन घाटी के इतिहास पर गौर करें तो गलवन समुदाय और सर्वेंटस ऑफ साहिब किताब के लेखक गुलाम रसूल गलवन इसके असली नायक हैं। कहा जाता है कि ब्रिटिश काल में 1899 में गलवन नदी के स्रोत का पता लगाने वाले दल का नेतृत्व गुलाम रसूल ने किया था। इसलिए नदी और उसकी घाटी को गलवन बोला जाता है। वह उस दल का हिस्सा थे जो चांगछेन्मो घाटी के उत्तर में स्थित इलाकों का पता लगाने के लिए तैनात किया गया था।

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गलवन कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले समुदाय को बोला जाता है। कुछ समाजशास्त्रियों के मुताबिक घोड़ों को लूटने और उन पर सवारी करते हुए व्यापारियों के काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता रहा है। कश्मीर में जिला बड़गाम में आज भी गलवनपोरा नामक एक गांव है। गुलाम रसूल गलवन का मकान आज भी लेह में मौजूद है। अंग्रेज और अमेरिकी यात्रियों के साथ काम करने के बाद उसे तत्कालिक ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर का लद्दाख में मुख्य सहायक नियुक्त किया था। उसे अकासकल की उपाधि दी थी। ब्रिटिश सरकार और जम्मू कश्मीर के तत्कालीन डोगरा शासकों के बीच समझौते के तहत ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर व उसके सहायक को भारत, तिब्बत और तुर्कीस्तान से लेह आने वाले व्यापारिक काफिलों के बीच होने वाली बैठकों व उनमें व्यापारिक लेन देन पर शुल्क वसूली का अधिकार था। गुलाम रसूल की मौत 1925 में हुई थी। गुलाम रसूल की किताब सर्वेंटस ऑफ साहिब की प्रस्ताना अंग्रेज खोजी फ्रांसिक यंगहस्बैंड ने लिखी है। वादी के कई विद्वानों का मत है कि अक्साई चिन से निकलने वाली नदी का स्नोत गुलाम रसूल ने तलाशा था। यह सिंधु नदी की प्रमुख सहायक नदियों में शामिल श्योक नदी में आकर मिलती है।

रसूल का मकान आज भी लेह में है: अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में इतिहास में पीएचडी कर रहे शोधकर्ता वारिस उल अनवर के मुताबिक, गलवन कश्मीर में रहने वाला पुराना कबीला है। गुलाम रसूल के पिता कश्मीरी और मां बाल्तिस्तान की रहने वाली थी। गुलाम रसूल अंग्रेज शासकों द्वारा भारत के उत्तरी इलाकों की खोज के लिए नियुक्त किए जाने वाले खोजियों के साथ बतौर सहायक काम करता था। रसूल का मकान आज भी लेह में उसकी कहानी सुनाता है।

जान खतरे में डालने को तैयार रहते हैं, कश्मीर के थे पूर्वजः यंग हसबैंड ने रसूल की किताब में लिखा है कि हिमालय के क्षेत्रों में रहने वाले लोग मेहनती और निडर होते हैं। वह दिन में आठ घंटे काम करते हैं। वह कई बार जान खतरे में डालने को तैयार रहते हैं। रसूल ने अपनी किताब में बताया है कि उसके पूर्वज कश्मीर के थे। उनके बुजुर्ग जिसे काला गलवान अथवा काला लुटेरा कहते थे, काफी चालाक और बहादुर थे। वह किसी भी भवन की दीवार पर बिल्ली की भांति चढ़ जाते। वह कभी एक जगह मकान बनाकर नहीं रहे। गुलाम रसूल ने दावा किया कि उसके पूर्वज अमीरों को लूट गरीबों की मदद करते थे। किताब में एक वाक्य का जिक्र करते हुए गुलाम रसूल ने लिखा है कि एक बार महाराजा ने विश्वस्त के साथ मिलकर मेरे (पूर्वज जोकि मेरे पिता का दादा था) को पकड़ने की योजना बनाई। उन्हें एक मकान में बुलाया गया जहां वह एक कुएं में गिर गए और पकड़ में आ गए। काला को फांसी दे दी। हमारे समुदाय के बहुत से लोग जान बचाने भाग निकले। मेरे दादा बाल्तिस्तान पहुंच गए। मेरे दादा का नाम महमूद गलवन था।

इनटू द अनट्रैवल्ड हिमालय: ट्रैवल्स, टैक्स एंड कलाइंब के लेखक हरीश कपाडिया ने अपनी किताब में लिखा है कि गुलाम रसूल गलवन उन स्थानीय घोड़ों वालों में शामिल था जिन्हें लार्ड डूनमोरे अपने साथ 1890 में पामिर ले गया था। वर्ष 1914 में उसे इटली के एक वैज्ञानिक और खोजी फिलिप डी ने कारवां का मुखिया बनाया था। इसी दल ने रीमो ग्लेशियर का पता लगाया था। लद्दाख में कई लोग दावा करते हैं कि गलवन जाति के लोग आज की गलवन घाटी से गुजरने वाले काफिलों को लूटते थे। इसलिए इलाके का नाम गलवन पड़ गया। 


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