Exclusive Interview: मुझमें ही नहीं, लाखों कश्मीरी पंडितों के दिलों में 30 साल से पल रहा यह दर्द...
फिल्म के सह- लेखक राहुल पंडिता ने दैनिक जागरण से कहा यह फिल्म हमारे दर्द को देश और दुनिया के सामने रखेगी कहा- 14 साल का था जब धार्मिक कट्टरवाद का शिकार होकर घर से बेघर होना पड़ा।
अनिल गक्खड़, जम्मू। सात फरवरी को रिलीज होने जा रही बॉलीवुड फिल्म ‘शिकारा’ के सह-लेखक राहुल पंडिता ने ‘दैनिक जागरण’ से कहा, उम्मीद है कि यह फिल्म हमारे दर्द को देश और दुनिया के सामने रखेगी। 14 साल का था जब धार्मिक कट्टरवाद का शिकार होकर घर से बेघर होना पड़ा। जड़ों से दूर निर्वासन की जिंदगी, ऐसा लगा जैसे जीवन वहीं पर खत्म हो गया। यह फिल्म मुझ जैसे लाखों कश्मीरी पंडितों का दर्द समेटे है...।
लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जड़ों से दूर
राहुल ने आपबीती सुनाई। कहा, कश्मीर में हर तरफ चीत्कार था, पर सरकार और प्रशासन ऐसे जड़ हो गए थे मानो उनके कानों में पिघला शीशा उड़ेल दिया गया है। मदद तो दूर, आंसू पोंछने को कोई नहीं आया। 30 साल से यह दर्द मुझमें ही नहीं, लाखों कश्मीरी पंडितों के दिलों में पल रहा है। हर बार हमारी आवाज को नकार दिया गया। लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जड़ों से दूर कर देने की घिनौनी साजिश रचने वालों को सजा तो दूर, आज तक सरकारें इसे स्वीकार करने से भी बचती रहीं। ‘शिकारा’ तीन दशक से दबाए इस दर्द को आवाज देने का प्रयास है।
यह फिल्म हमारे दर्द को पूरे देश ही नहीं, दुनिया के सामने रखेगी
निर्माता-निदेशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म के सह-लेखक का यह दर्द बात करते ही फूट पड़ता है। उस त्रासदी पर वह बताते हैं कि धर्म के नाम पर कश्मीर में खून बहाया जा रहा था और सरकारें मौन धारण किए हुए थीं। इस फिल्म में मेरे जीवन से जुड़े कुछ किस्से भी हैं। मैंने इस पर किताब भी लिखी है। उम्मीद है कि यह फिल्म हमारे दर्द को पूरे देश ही नहीं, दुनिया के सामने रखेगी। जम्मू में विस्थापितों के लिए बनाए गए कैंप में भी रह चुके राहुल कहते हैं, मैंने हर ओर ऐसे हालात देखे जिसकी अब चर्चा भी नहीं कर सकता। ऐसा लग रहा था कि पूरी दुनिया ही बेगानी हो गई है। क्या शिकारा कश्मीरी पंडितों के लिए नई राह तलाश पाएगी? इस सवाल पर पंडिता साफ कहते हैं कि घर वापसी में कितनी सहायक होगी, यह कहना मुश्किल है, लेकिन आज की पीढ़ी और सरकारें समझ सकेंगी कि कश्मीरी पंडितों से हुए अत्याचार की इंतहा क्या थी। किस तरह से पूरी एक कौम और उसकी संस्कृति के समूल नाश की घिनौनी साजिश रची गई।
क्या शिकारा कश्मीरी पंडितों के लिए नई राह तलाश पाएगी?
फिर घर वापसी कैसे? इस सवाल पर पंडिता साफ कहते हैं, 30 साल तक कश्मीरी पंडितों को उनके जख्मों के साथ अकेला छोड़ दिया गया। क्या यह दर्द इतनी आसानी से दब जाएगा। जब तक कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी यह स्वीकार नहीं करती कि जो हुआ बहुत गलत हुआ और जो हुआ उसके कारणों पर खुलकर बात नहीं होगी, दो पड़ोसियों की तरह, दो पुराने दोस्तों की तरह, तब तक तमाम बातें बेमानी हैं। बात उन लोगों के साथ नहीं हो सकती जो हाथ में हथियार उठाकर अब भी इस्लामिक कट्टरवाद के नाम पर दहशत फैलाने की साजिशें रच रहे हैं।
कश्मीर इस्लामिक कट्टरवाद का केंद्र बना
राहुल का कहना है कि पंडितों के निर्वासन के बाद कश्मीर इस्लामिक कट्टरवाद का केंद्र बन गया। वहां की नई पीढ़ी ने न दुनिया देखी और न दुनिया की खूबसूरती को महसूस किया। एक बड़ी आबादी ने इसी को अपनी जिंदगी का हिस्सा मान लिया। आवश्यक है कि कुछ संवाद शुरू हो और शिकारा वही संवाद शुरू करने का प्रयास है। उनका कहना है कि सोशल मीडिया पर और अन्य प्लेटफार्म पर यह सच नई पीढ़ी देखेगी तो अवश्य अपने पूर्वजों के साथ हुए गुनाह के बारे में उनके दिल में टीस उठेगी और जिन्होंने गुनाह किया उन्हें अफसोस होगा।
पंडित वहां कैसे जाएं? राहुल पंडिता ने कहा कि वह हमारे दोस्त नहीं हो सकते जो केवल कश्मीरियत और घर वापसी के कोरे नारे दे रहे हैं। यह कश्मीरी पंडितों को अंधेरे में धकेलने जैसा ही है। आखिर कश्मीरी पंडित वहां कैसे जाएं? उन लोगों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है जो सच स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा रहे हैं? ऐसे में पनुन कश्मीर ही समाधान हो सकता है। एक ऐसा क्षेत्र जहां कश्मीरी पंडित सुरक्षित महसूस कर सकें। अपनी संस्कृति के अनुरूप जीवन यापन कर सकें।
फिल्म के सह- लेखक राहुल पंडिता ने दैनिक जागरण से कहा, यह फिल्म हमारे दर्द को देश और दुनिया के सामने रखेगी, कहा- 14 साल का था जब धार्मिक कट्टरवाद का शिकार होकर घर से बेघर होना पड़ा। 30 साल से यह दर्द मुझमें ही नहीं, लाखों कश्मीरी पंडितों के दिलों में पल रहा है...
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