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शहीद कैप्टन बहादुर सिंह की शौर्यगाथाः पाक का तिलिस्म तोड़ 'किला पर्वत अली' पर फहराया था तिरंगा

15 दिसंबर 1971 को जब कैप्टन बहादुर सिंह की शहादत की खबर गांव चक-भंबो में पहुंची तो घर में शादी की खुशियां मातम में बदल गईं।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Tue, 17 Dec 2019 12:22 PM (IST)Updated: Tue, 17 Dec 2019 12:22 PM (IST)
शहीद कैप्टन बहादुर सिंह की शौर्यगाथाः पाक का तिलिस्म तोड़ 'किला पर्वत अली' पर फहराया था तिरंगा
शहीद कैप्टन बहादुर सिंह की शौर्यगाथाः पाक का तिलिस्म तोड़ 'किला पर्वत अली' पर फहराया था तिरंगा

रामगढ़, भूषण कुमार। वर्ष 1971 भारत-पाक युद्ध के दौरान भारतीय सेना की आठ सिखलाई रेजीमेंट के शहीद कैप्टन बहादुर सिंह निवासी चक-भंबो रामगढ़ ने पाकिस्तानी सेना के तिलिस्म 'किला पर्वत अली' को फतेह कर भारतीय तिरंगा फहरा कर वीरता का नया अध्याय स्थापित किया था। 15 दिसंबर सन 1971 को राजस्थान के जैसलमेर सेक्टर के बाड़मेर में भारत-पाक के बीच जंग जारी थी। उस वक्त कैप्टन बहादुर सिंह ने कमांडिंग अधिकारी कर्नल बसंत सिंह के आदेश पर सरहद से करीब 30 किलोमीटर पाकिस्तान क्षेत्र में स्थित पाक सेना के तिलिस्म किला पर्वत अली को फतेह करने की योजना बनाई।

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कैप्टन बहादुर ङ्क्षसह व उनके साथी कैप्टन शाही निवासी होशियारपुर अपनी विशेष टैंकलैस पलाटून संग किला पर्वत अली पर चढ़ाई करने निकले। पाक गोलाबारी का सामना करते हुए भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सेना के उस तिलिस्म को तोड़ा, जहां से भारतीय सेना पर गोले बरसाए जा रहे थे। टैंकों की सहायता से भारतीय सेना ने किला पर्वत अली को ध्वस्त कर सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर कर दिया। किला पर्वत अली फतेह करने के बाद कैप्टन बहादुर सिंह ने वहां भारतीय तिरंगा फहरा दिया। इस सफलता का संदेश कमांडिंग अधिकारी कर्नल बसंत सिंह को देने के लिए कैप्टन बहादुर सिंह साथी कैप्टन शाही के साथ सैन्य वाहन पर सवार होकर बाड़मेर की तरफ निकल पड़े। लेकिन पेड़ों के बीच छिपकर बैठे पाकिस्तानी सैनिक ने उनपर फायरिंग कर दी। इससे कैप्टन बहादुर सिंह गंभीर रूप से घायल हो गइ। उनके साथी कैप्टन शाही ने हौसला दिखाते हुए वाहन को दौड़ाया और बाड़मेर स्थित सैन्य शिविर पर पहुंच गए। लेकिन जब तक वह सैन्य शिविर में पहुंचे, घायल कैप्टन बहादुर ङ्क्षसह वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। शहीद कैप्टन बहादुर सिंह को मरणोपरांत वीर चक्र भी दिया गया था।

शादी के बजाय देश को बचाना समझा जरूरी

वर्ष 1971 में जब भारत-पाक में जंग जारी थी, उन दिनों कैप्टन बहादुर सिंह का पैतृक गांव चक-भंबो उनकी शादी का जश्न मनाने को उत्सुक था। दिसंबर के अंतिम सप्ताह में उनकी शादी तय थी। परिजन उनको छुट्टी लेकर घर पहुंचने के टेलीग्राम भेज रहे थे। उनकी रेजीमेंट के कमांडिंग अधिकारी कर्नल बसंत सिंह ने उन्हें इमरजेंसी छुट्टी लेकर घर पहुंच कर शादी करने की सलाह दी, लेकिन भारत माता के सपूत ने पहले देश की रक्षा करने की ठानी और अपनी शादी व पारिवारिक खुशियों को त्याग दिया। 15 दिसंबर 1971 को जब कैप्टन बहादुर सिंह की शहादत की खबर गांव चक-भंबो में पहुंची तो घर में शादी की खुशियां मातम में बदल गईं। परिजनों को अपने दुलारे की शहादत का गम चूर करने का काम कर गया। आज शहीद कैप्टन बहादुर सिंह के पारिवारिक सदस्यों में मौजूद उनके भाई उजागर सिंह व बड़ी भाभी संत कौर को शहीद देवर कैप्टन बहादुर सिंह की शहादत का गम आंसू बनकर आंखों से छलकता है। उनके दोनों भाई दिवंगत सरबन सिंह व उजागर सिंह भी सेना के जवान रहे हैं।

कमिशन पास कर क्लर्क से बने थे कैप्टन

सन 1943 में जन्मे होनहार युवक बहादुर सिंह ने हायर सेकेंडरी स्कूल रामगढ़ से 10वीं की कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सेना की 61 क्यूलरी में बतौर ए-ग्रेड क्लर्क की नौकरी हासिल की। नौकरी मिलने के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और कमिशन पास सेना की 10 सिखलाई रेजिमेंट में कैप्टन रैंक हासिल किया। अपनी आयु के महज 27 वर्ष पूरे करने वाले इस जांबाज सैनिक ने अपनी वीरता के ऐसे अध्याय स्थापित किए, जो आज हमारे समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत साबित हो रहे हैं। 


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