रेगिस्तान में हरियाली लाए राजेंद्र सिंह, भांप गए थे पहले ही पानी की समस्या
राजेंद्र सिंह प्रकृति के जल को बचाने के लिए अकेले ही निकले थे, लेकिन आज उनके साथ हजारों लोग जुड़ गए हैं।
‘जल ही जीवन है’, लेकिन विडंबना यह है कि मौजूदा दौर में भारत के ज्यादातर राज्यों में पानी की किल्लत है। गर्मियों में यह समस्या देश के कई हिस्सों में विकराल रूप धारण कर लेती है। बीती गर्मियों में तो महाराष्ट्र के कई इलाकों में पेयजल संकट इतना ज्यादा गहराया था कि रेल परिवहन के जरिये वहां पानी पहुंचाना पड़ा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत में लगभग 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं होता। गांवों में तो स्थिति और भी खराब है। वहां लगभग 70 प्रतिशत लोग अब भी प्रदूषित पानी पीने को ही मजबूर हैं।जानकारों का कहना है कि ऊर्जा की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के प्रयास में लगातार नए बिजली संयंत्र बनाए जा रहे हैं। लेकिन इस कवायद में पानी की बढ़ती खपत को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन संयंत्रों को ठंडा रखने के लिए भारी मात्रा में पानी की खपत होती है। अगर ऊर्जा उत्पादन की होड़ इसी रफ्तार से जारी रही तो अनुमान है कि वर्ष 2040 तक लोगों की प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त पानी ही नहीं बचेगा।
दुनिया की कुल आबादी में से 18 प्रतिशत भारत में रहती है, लेकिन केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में महज चार प्रतिशत ही जल संसाधन हैं। यह बेहद गंभीर स्थिति है। सरकारी आंकड़ों से साफ है कि बीते एक दशक के दौरान देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता तेजी से घटी है।
दरअसल, सरकार तो अब जाकर पेयजल को लेकर गंभीर हुई है, लेकिन जल पुरुष कहे जाने वाले राजेंद्र सिंह ने पहले ही इस स्थिति को भांप लिया था और जल संरक्षण के काम में जुट गए थे। संकट की आहट से सधे उनके कदम बढ़े तो जल संरक्षण की दिशा में उनके प्रयास मील का पत्थर साबित हुए।
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के निवासी राजेंद्र सिंह का ध्यान इस ओर गया, तो उन्होंने कुछ कदम उठाने की ठानी। हालांकि राजेंद्र के पिता एक जमींदार थे, जिनके पास लगभग 60 एकड़ जमीन थी। वह अपने सात भाइयों में सबसे बड़े थे, इसलिए पिता के बाद उन्हें ही मुखिया की जिम्मेदारी संभालनी थी, लेकिन राजेंद्र ने ऐसा ना करते हुए समाजसेवा के काम में लगना ज्यादा बेहतर समझा। हिंदी लिटरेचर में स्नातक राजेंद्र सिंह ने राजस्थान में 1980 के दशक में पानी की समस्या पर काम करना शुरू किया। उन्होंने बारिश के पानी को धरती के भीतर पहुंचाने की प्राचीन भारतीय प्रणाली को ही आधुनिक तरीके से अपनाया। उन्होंने कुछ गांव वालों की मदद से जगह-जगह छोटे-छोटे पोखर बनाने शुरू किए। ये पोखर बारिश के पानी से लबालब भर जाते हैं और फिर इस पानी को धरती धीरे-धीरे सोख लेती है। इससे जमीन के नीचे के पानी का स्तर बढ़ता चला जाता है।
शुरुआत में कुछ लोगों ने उनकी यह कहकर हंसी उड़ाई कि इन छोटे-छोटे पोखरों से कितने लोगों की प्यास बुझेगी? कितने खेतों को पानी मिलेगा? लेकिन राजेंद्र सिंह ने अपनी कोशिश जारी रखी। जल संचय पर काम बढ़ता गया। इसके बाद गांव-गांव में जोहड़ बनने लगे और बंजर धरती पर हरी फसलें लहलहाने लगी। अब तक जल संचय के लिए करीब साढ़े छह हजार से ज्यादा जोहड़ों का निर्माण हो चुका है और राजस्थान के करीब एक हजार गांवों में फिर से पानी उपलब्ध हो गया। राजेंद्र सिंह ने जल संरक्षण उपायों के जरिए राजस्थान के अलवर शहर की तो तस्वीर ही बदल दी है। गर्मियों में जहां लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरसते थे, वहां आज पानी की कोई समस्या नहीं है।
‘जल पुरुष’ के संबोधन को सार्थक कर रहे राजेंद्र सिंह कहते हैं कि जल हमें ही नहीं पृथ्वी एवं पर्यावरण को बचाने के लिए भी बेहद जरूरी है। बिना पानी के हरियाली के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। लेकिन जब तक हम पानी का असली मोल नहीं समझेंगे, तब तक पानी के संरक्षण की दिशा में कुछ सार्थक नहीं किया जा सकता।