सोच ही ऐसी, तो कैसे बराबरी पर रहेगी आधी आबादी
लिंगभेद के खिलाफ जागरुकता बढ़ रही है, लेकिन इसका असर रातों-रात नजर नहीं आएगा। असली चुनौती तो बड़े-बुजुर्गों की सोच बदलना है।
लड़कियों को लड़कों से अलग और कमतर बताना हमारे समाज में आम बात है। आज भी हालात ऐसे हैं कि घर-आंगन से ही बच्चे भेदभाव का सबब सीख रहे हैं। अब लड़कियां चारदिवारी से बाहर तो आ गईं, लेकिन उन्हें कदम-कदम पर इस भेदभाव से भरी सोच का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसे हालात हर जगह हैं, महिला क्रिकेट टीम विश्व कप फाइनल खेले तो चुनिंदा लोग उत्साहित होते हैं, पुरुष टीम के लिए पूरी दुनिया दीवानी होती है। यह देश की नहीं, घर-घर की कहानी है, जहां बेटा पैदा होने पर हम जश्न मनाते हैं और बेटी का जन्म हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं।
हमने अंतरिक्ष यान छोड़े हैं और दूसरे ग्रहों पर बसने की तैयारी कर ली है। वैज्ञानिक तरक्की की ऐसी कई मिसालें दे सकते हैं हम, जो यह साबित करती हैं कि इंसान बीते जमाने के पिछड़ेपन को छोड़ बिल्कुल मॉडर्न हो गया है। कहने को तो हम 21वीं सदी में पहुंच गए हैं, लेकिन इसके बावजूद महिला-पुरुष के बीच भेदभाव करने की सोच से पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं।
फूल से नाजुक बच्चे जन्म लेते ही अक्सर लिंग भेद की सामाजिक दीवार के कारण दो हिस्सों में बंट जाते हैं, लड़का और लड़की। ज्यादातर माता-पिता खुद ही इस दीवार की नींव रखते हैं। लिंग असमानता दरअसल लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव है, जिसे कोई खत्म नहीं कर रहा। इस लिंग भेद का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है। मनु के अनुसार, “औरत को बाल्यकाल में पिता के अधीन, शादी के बाद पति के अधीन और अपनी वृद्धावस्था या विधवा होने के बाद अपने पुत्र के अधीन रहना चाहिये। कभी भी उसे आजाद रहने की अनुमति नहीं है।” भेदभाव की ऐसी ही तस्वीर सभी धर्मों और वर्गों में मान्यताओं और परंपरा के नाम पर सभी जगह दिखाई देती है।
समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार, “पितृसत्तात्मकता सामाजिक संरचना की ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था है, जिसमें आदमी औरत पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है और उसका शोषण करता है।” यह स्थिति आज के आधुनिक समाज में भी है। यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो महिलाओं को घर में या घर के बाहर समाज या दुनिया में स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय लेने की कोई शक्ति नहीं मिली है।
पहले महिलाओं को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था, घूंघट में रखा जाता था, चूल्हा-चौका ही उनकी जिंदगी थी। अब महिलाएं घर से निकलने तो लगी हैं, लेकिन दकियानूसी समाज उनकी उन्मुक्त उड़ान में हर जगह बाधा बनता है। स्कूल से लेकर पति तक, उनके लिए कोई दूसरा चुनता है। इसका मूल कारण लिंग भेद ही है। जब तक लड़कों और लड़कियों में भेदभाव खत्म नहीं होगा, तब तक महिलाओं के लिए इस समाज को आजादी की सांस लेने लायक नहीं बनाया जा सकता।
महिलाओं की स्थिति पर 'द वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' ने 2016 में एक सर्वे किया था। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि महिलाओं को शिक्षा, अर्थव्यवस्था, राजनीति और स्वास्थ्य से जुड़े संसाधन मुहैया करने और इन क्षेत्रों में उनको मौका देने के लिहाज से दुनिया में भारत का 87वां स्थान है। जाहिर तौर पर इसके लिए समाज की सोच दोषी है, लेकिन इससे भी चिंताजनक यह है कि जैसी स्थिति ग्रामीण भारत में है, लगभग वैसी ही स्थिति शहरों में भी है।
आजकल कॉलोनी या सोसायटी स्तर पर लड़के-लड़कियों की कॉमन स्पर्धाएं देखने में आती हैं। छोटे-छोटे बच्चे इन स्पर्धाओं में खुले मन से भाग लेते हैं। लेकिन किसी खेल में यदि कोई लड़की, लड़कों को पछाड़ देती है, तो लड़के हंसी का पात्र बन जाते हैं। पैरेंट्स बुरा मानते हैं कि उनका लड़का किसी लड़की से हार गया। लड़कों से पूछा जाता है कि वे एक लड़की से कैसे हार गए?
जागरूकता की जरूरत
विशेषज्ञों का कहना है कि जागरूकता ही इसका एकमात्र उपाय है। 'नेशनल रिसर्च सेंटर फॉर वुमन इन एग्रीकल्चर' ने अपने अध्ययन में पाया है कि जहां लोग जागरूक हुए हैं, वहां महिलाओं के प्रति पुरुषों के रुख में बड़ा बदलाव आया है। पुरुषों ने महिलाओं के प्रति पारंपरिक सोच छोड़ते हुए उन्हें सामाजिक-आर्थिक विकास में बराबरी का हिस्सेदार मानना शुरू कर दिया है। इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि महिलाओं को भी अपनी सोच को बदलना होगा। अब उन्हें खुद को पुरुषों का महज सहयोगी नहीं समझना चाहिए, बल्कि यह आत्मविश्वास पैदा करना चाहिये कि वे घर हो चाहे ऑफिस, चाहे किसी कंपनी का मैनेजमेंट, हर स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाएंगी। इसी तरह 'द स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन डेवलपमेंट इन मैसूर' ने भी लिंगभेद के खिलाफ जागरूकता को बड़ा हथियार माना है। राजस्थान में जागरूकता फैलाने के लिए राजस्थान फारेस्ट डिपार्टमेंट ने एक विशेष अभियान चलाया था। एक साल बाद विभिन्न मापदंडों पर इसका असर देखा गया, तो चौंकाने वाले परिणाम सामने आए। समाज में न केवल महिलाओं की भागीदारी बढ़ी, बल्कि स्वयं महिलाओं में भी गजब का आत्मविश्वास देखा गया। इससे कई गावों की दशा सुधर गई। राजपूत बहुल समाज में यह बदलाव किसी चमत्कार से कम नहीं है। केरल में चैरिटेबल ट्रस्ट 'सखी' ने भी इस दिशा में काम किया है। यह विभिन्न यूनिवर्सिटी से निकले युवाओं का समूह है जो पीडि़त नारियों के पक्ष में आवाज उठाते हैं। महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध के विरोधस्वरूप इन्होंने पुरुषों की रैली निकाली और 16 दिवसीय अभियान चलाया। इससे समाज में जागरूकता फैली।
लिंगभेद के खिलाफ जागरुकता बढ़ रही है, लेकिन इसका असर रातों-रात नजर नहीं आएगा। असली चुनौती तो बड़े-बुजुर्गों की सोच बदलना है। बच्चों को समझाना आसान है। इसलिए यह प्रयास स्कूल से ही शुरू हो जाना चाहिए। हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी हो कि लिंगभेद को और बढ़ावा न मिले। इसी राह पर चलकर हम महिलाओं के लिए सुरक्षित समाज बना पाएंगे। वक्त के साथ बदलाव आ रहे हैं, लेकिन सोच में बड़ा बदलाव अभी भी बहुत जरूरी है। महिला-पुरुष का यह भेद जितनी जल्दी मिटेगा, देश उतनी तेज रफ्तार से आगे बढ़ेगा। आप कितनी भी बड़ी-बड़ी योजनाएं बना लें, कितने भी बड़े सपने पाल लें, वे कभी साकार नहीं होंगे, क्योंकि स्त्री पुरुष में जो राष्ट्र समानता रखेगा वह विकसित राष्ट्र कहलायेगा।
अगर आप महिलाओं को असल में बराबर समझते हैं और उन्हें सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो टाटा टी के 'जागो रे' अभियान से जुडि़ए। इस अभियान के तहत एक याचिका के जरिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जेंडर सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम को हर स्कूल में अनिवार्य बनाने की अपील करें।
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