इन नंगे पैरों में जूते पहना दो सरकार, लौट आएगा हॉकी का गौरव
बच्चे स्कूल का समय खत्म होने के बाद दोपहर 12 बजे से शाम चार बजे तक मैदान में नंगे पैर हॉकी खेलते हैं।
रांची, आलोक दीक्षित। झारखंड लंबे समय से हॉकी की नर्सरी रहा है। गरीबी, जंगल और नक्सलियों से घिरे झारखंड ने लगातार राष्ट्रीय स्तर पर परचम लहराने वाले हॉकी के खिलाड़ी दिए हैं। दुखद स्थिति यह है कि यहां हॉकी को बढ़ावा देने और खिलाड़ियों को संसाधन उपलब्ध कराने के सरकारी प्रयास आज भी नाकाफी हैं। इसकी तस्दीक रांची से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर खूंटी जिले में स्थित सर्वदा आश्रम परिसर में चल रहे स्कूल के बच्चों को हॉकी का अभ्यास करते देख होती है। यहां हॉकी खेल रहे बच्चों पर ऊपर से नीचे तक नजर डालेंगे तो हालात निराश करने वाले नजर आएंगे।
स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा एक से लेकर पांच तक के बच्चों में हॉकी के प्रति गजब की दीवानगी है। बच्चे स्कूल का समय खत्म होने के बाद दोपहर 12 बजे से शाम चार बजे तक मैदान में नंगे पैर हॉकी खेलते हैं। बेहद गरीब व आदिवासी परिवारों से आने वाले इन बच्चों के घरों में चूल्हा बमुश्किल जलता है, लेकिन हॉकी के प्रति जुनून ऐसा है कि यहां के सभी बच्चों के पास अपनी फाइबर व लकड़ी की हॉकी स्टिक मौजूद है। हॉकी स्टिक खरीदने के लिए बच्चों के माता-पिता पेट काटकर भी पैसे बचाते हैं और फिर स्वयं शहरी क्षेत्र में जाकर उन्हें हॉकी स्टिक दिलाते हैं। लेकिन, गरीबों के सपने तो अक्सर इन्हीं मैदानों में दम तोड़ जाते हैं।
सर्वदा आश्रम वही ऐतिहासिक चर्च है, जिसमें फादर जॉन हॉफमैन ने मुंडारी व्याकरण और मुंडारिका इनसाइक्लोपीडिया की रचना की थी। चर्च के परिसर में कक्षा एक से पांच तक का स्कूल चलता है। 1881 में अंग्रेजों ने यहां स्कूल की शुरुआत की थी। फिलहाल यह सरकारी मान्यता प्राप्त स्कूल बन चुका है। नाम है आरसी ब्वॉयज मिडिल स्कूल। स्कूल के पीछे पहाड़ी जमीन को तराश कर नर्म मिट्टी डालकर बनाए गए हैं हॉकी के दो मैदान। पहला 80 गुना 40 का है, दूसरा इससे छोटा है। इन्हीं मैदानों में पनप रहा है राष्ट्रीय खेल हॉकी का भविष्य। यहां हॉकी खेलने वाले नन्हें बच्चों में हॉकी के प्रति जुनून तो है, लेकिन पैरों में जूते नहीं हैं। क्षेत्र में हॉकी के प्रति जुनून का ही नतीजा है कि जब ये बच्चे नन्हें कदमों से अपनी स्टिक लेकर मैदान पर बिजली की गति से दौड़ते हैं तो उनकी चपलता देखते ही बनती है। गेंद उनकी स्टिक से छूटने का नाम नहीं लेती। इससे वे बरबस ही हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद, अशोक कुमार जैसे धाकड़ों की याद दिलाते हैं।
बच्चे ही हैं कोच, रेफरी व लाइनमैन : यहां खास बात यह है कि इन बच्चों को हॉकी का ककहरा सिखाने के लिए कोई कोच नहीं है। चर्च के फादर जेवियर केरकेट्टा कहते हैं कि यहां खेलने वाले बड़ी कक्षाओं के बच्चे ही छोटे बच्चों को हॉकी खेलना सिखाते हैं। वही बच्चों के कोच हैं। बड़े बच्चे ही यहां होने वाले मुकाबलों में रेफरी व लाइनमैन की भूमिका निभाते हैं। लेकिन क्या मजाल कि मैदान में मैच खेल रहे 22 खिलाड़ी कोई भी गलती करें। तुरंत ही रेफरी येलो, रेड कार्ड दिखाते हैं। लाइनमैन कॉल करते हैं। फादर जेवियर ने बताया कि इन्हीं मैदानों में कुछ वषों पहले हॉकी खेलने वाले बिरसा ओडेया व चंद्रशेखर धेंगरा इन दिनों दिल्ली में ट्रेनिंग ले रहे हैं। दोनों राज्य स्तर एवं जूनियर नेशनल स्तर पर हॉकी प्रतियोगिताओं में भाग ले चुके हैं।
दिव्यांगों में भी है हॉकी का जुनून : हॉकी से यहां के बच्चे कितना प्रेम करते हैं इसका उदाहरण है अमर हसापूर्ति। कक्षा पांच के इस 11 वर्षीय छात्र का एक पैर डेढ़ वर्ष पूर्व कैंसर की वजह से जांघ से काटना पड़ा था, लेकिन अमर आज भी एक पैर में बैसाखी बांधकर यहां अभ्यास करता है।